Srimanta Sankardev Jeevan Parichay | श्रीमंत शंकरदेव जीवन परिचय
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श्रीमंत शंकरदेव – निबंध | Srimanta Sankardev Essay
जन्म और वंश परिचय
सन् 1449 ई. में नगाँव जिले के आलिपुखुरी में श्रीमंत शंकरदेव ( Srimanta Sankardev ) का जन्म हुआ था। वहाँ के भूञा, कुसुम्बर उनके पिता और सती साध्वी सत्यसंध्या उनकी माता थीं। कहा जाता है कि शंकर के वरदान से पुत्र रत्न प्राप्त करने के कारण पिता-माता ने बच्चे का नाम शंकर वर या शंकर रखा था।
बचपन और शिक्षा-दीक्षा
बचपन में ही शंकर के पिता-माता स्वर्ग सिधारे। इसलिए अनाथ बालक के लालन पालन का भार उनकी दादी खेरसुती पर पड़ा। दादी के लाड़-प्यार के कारण शंकर का मन लिखाई-पढ़ाई से उचट-सा गया। पर स्वच्छन्द वातावरण में प्रकृति की उन्मुक्ता गोद में विचरण करने के कारण उनका शारीरिक विकास हुआ। एक दिन की बात है, शंकर जोश में आकर बाढ़ से भरे ब्रह्मपुत्र को तैरकर पार कर गये। एक बार उन्होंने एक मतवाले सांड़ की सींग पकड़ कर उसे गड्ढ़े में पटक दिया था।
बारह साल इसी तरह बीते। तेरहवें वर्ष में दादी ने शंकर को पाठशाला भर्ती कर दिया। शंकर तेज बुद्धि के थे। अपने गुरु महेन्द्र कन्दली की सुशिक्षा में उन्होंने व्याकरण, कोश, पुराण, महाभारत, रामायण आदि विभिन्न शास्त्रों और काव्यों के अलावा ज्योतिष, इतिहास, श्रुति-स्मृति और योगाशास्त्र में भी निपुणता प्राप्त कर ली।
देशाटन
विद्याध्ययन समाप्त कर श्री शंकर अपने घर पहुँचे। अपनी गृहस्थी के अतिरिक्त उन पर पुस्तैनी जागीर के संचालन का भार भी आ पड़ा। पर उन्होंने इन सबको अच्छी तरह संभाल लिया। तथा डेकागिरि यानी निपुण युव-नायक की ख्याति प्राप्त की। इसी समय हरिबर गिरि की सुलक्षण कन्या सूर्यवती से उनकी शादी हुई। तीन साल बाद मनु नामक कन्या का जन्म हुआ। परन्तु उसके नौ महीने बाद सूर्यवती का देहांत हुआ। इसलिए सांसारिक सुख भोग से उनका मन ऊब सा गया।
इधर कछारी राजाओं के अत्याचारों से विरक्त होकर वे भूञा-वंश के सभी लोगों को ले आकर बरदोवा में बसे । बेटी मनु के बड़े होने पर रामचंद्र कायस्थ के सुपुत्र हरि से उसका व्याह कर दिया। ३२ वर्ष की उम्र में शंकर देशाटन के लिए निकल पड़े। गंगाघाट, गया, श्रीक्षेत्र, वृन्दावन, मथुरा, गोकुल, ब्रजधाम, सीताकुण्ड रामकेलि और बद्रिकाश्रम आदि उत्तर भारत के तीर्थों के अलावा उन्होंने दक्षिण के बहुत से तीर्थ स्थानों का भी भ्रमण किया। विभिन्न पंडितों के सत्संग से उनके ज्ञान की अपूर्व श्रीवृद्धि हुई और वे धुरंधर विद्वान बनकर बारह साल बाद घर लौटे। इसी तरह उन्होंने प्रौढ़ावस्था में भी दूसरी बार तीर्थाटन किया था।
धर्म प्रचार और समाज सुधार
तांत्रिका और शाक्तों के वाम मार्ग एव पाखंड से उत्पीडित जनता को उन्होंने वैष्णव धर्म में दीक्षित किया। भागवत के आधार पर एक देव, एक सेव अद्वैतवाद का प्रचार किया।
उन्होंने कहा —
इटो कलि युगे हरि नामे से सार।
नाम बिने भकतर गति नाइ आर।
अर्थात इस कलियुग में हरिनाम ही सार पदार्थ है, जिसके बिना भक्तों का दूसरा चारा नहीं है।
धर्मप्रचार के सिलसिले में उन्होंने बहुत-सी भक्तिमूलक रचनायें लिखीं। साथ ही सारे असम में घूम-घूम कर सत्रों (मठों) की स्थापना की। धर्म प्रचार में प्रिय शिष्य बनने लगे तो शाक्त पुरोहित वर्ग क्षुब्द हो उठा उन्होंने आहोम राजा का कान भरना शुरु किया। राजा के बुलाने पर शंकरदेव दरबार में हाजिर हुए। वहाँ अपने मतवाद की पुष्टि हेतु पण्डितों से शास्त्रार्थ कर उन्हें परास्त भी किया। फिर भी राजा उन पर असन्तुष्ट ही रहे। इसलिए आप अपने शिष्या स्वच्छन्दवादी एवम् (2) आध्यात्मिक व देशभक्ति प्रधान । इनके द्वारा सम्पादित विषय-तत्व, शब्द-चयन, रचना रीति, छन्द-प्रयोग, मानस-चित्र आदि से प्रभावित रचनाएँ पद्यस्वरूप विशिष्टता से भरपूर हैं।
जयन्ती युग में साम्प्रतिक कविता का प्रादुर्भाव हुआ। इस युग में इन्होंने बहुमुखी प्रतिभाओं एवं सर्व-गुण-सम्पन्न भावधारा से । रचनाओं का लेखन करना आरम्भ कर दिया। इन्होंने सामाजिक व्यवस्थाओं पर अपनी पैनी दृष्टि साकार की है। समाज-चेतना की भावनाएँ एवं आधुनिक प्रतीकवादी एवं प्रगतिवादी रीति को दर्शाते हुए इनके द्वारा लिखित रचनाएँ अति महत्वपूर्ण हैं। स्वच्छन्दवादिता एवम् देशभक्ति भाव इनकी रचनाओं की अलग पहचान है।
श्रीमंत शंकरदेव ( Srimanta Sankardev ) की रचनाएँ
इनके द्वारा लिखित काव्य ग्रन्थों के नाम इस प्रकार हैं : (1) भागवत पुराण-प्रथम, द्वितीय, अष्टम, दसम, एकादश और द्वादश स्कन्ध (2) रामायण उत्तरा काण्ड (3) रूक्मिणी हरण काव्य (4) निमि-नवसिद्ध संवाद (5) वैष्णवामृत (6) भक्ति-रत्नाकर(संस्कृत) (7) गुणमाला (8) अनादि पातन (9) भक्ति-प्रदीप (10) टोटय, भटिमा (11) अजामिलोपाख्यान (12) बरगीत (13) कुरुक्षेत्र (14) बलिछलन (15) कालिदमन (नाटक) (16) केलि गोपाल (नाटक) (17) पारिजात-हरण (नाटक) (18) रूक्मिणी-हरण (नाटक) (19) राम-विजय (नाटक) (20) पत्नी-प्रसाद (नाटक) (21) कीर्तन।
श्रीमंत शंकरदेव ( Srimanta Sankardev ) की सभी रचनाओं में ‘कीर्तन’ सर्वोत्कृष्ट एवम् महत्वपूर्ण हैं। इन्होंने श्रीमद्भागवत गीता, पद्म-पुराण, ब्रह्म-पुराण आदि संस्कृत ग्रन्थों का निष्कर्ष निकालकर सर्वसुलभ गद्य-पद्य में इस अद्वितीय ग्रन्थ-रत्न की रचना की है। इनकी समस्त रचना प्रणाली अत्यन्त आकर्षक, बोधगम्य, सरल एवं सारगर्भित हैं।
इनके ‘कीर्तन’ में 27 अध्याय हैं, जो बड़े ही नीति-परक, भाव-प्रधान, अलकारों से भरपूर, मर्म-व्यंजना स्वरूप हैं। इसमें अनुप्रासों की भरमार तथा लालित्य-भाव का सामञ्जस्य दृष्टिगत होता है। ‘कीर्तन-घोषा’ समस्त धार्मिक सिद्धान्तों का सार-तत्त्व है। इसकी निर्मल भक्तिमय भावनाएँ श्रीमंत शंकरदेव ( Srimanta Sankardev ) के पाण्डित्य को दर्शाती है।
श्रीमंत शंकरदेव ( Srimanta Sankardev ) 120 वर्ष की पूर्णायु का उपभोग कर स्वर्गवासी हो गये। इनकी अमरत्व की पहचान असमिया साहित्य की विरासत है।
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