श्याम सुन्दर दास का जीवन परिचय | Shyam Sundar Das Ka Jeevan Parichay | Shyam Sundar Das Biography
आज हम आप लोगों को द्विवेदी युग के महान् साहित्यकार श्याम सुन्दर दास जी का जीवन परिचय (Shyam Sundar Das Biograph) के बारे में बताने जा रहे हैं। इसके अतिरिक्त यदि आपको और भी कोई लेखकों का जीवन परिचय चाहिए तो आप हमारे website के top Menu में जाकर प्राप्त कर सकते है।
श्याम सुन्दर दास का जीवन परिचय | Shyam Sundar Das Biography
जन्म एवं शिक्षा- द्विवेदी युग के महान् साहित्यकार बाबू श्यामसुन्दरदास जी थे। इनका जन्म सन् 1875 ई० में काशी के प्रसिद्ध खत्री परिवार में हुआ था। इनका बचपन का जीवन बहुत ही सुख और आनन्द से बीता। सबसे पहले इन्हें संस्कृत की शिक्षा दी गयी, उसके बाद परीक्षाएँ उत्तीर्ण करते हुए सन् 1897 ई० में बी० ए० पास किया। बाद में इनकी आर्थिक स्थिति बहुत दयनीय हो गई थी, जिसके कारण इन्हें चन्द्रप्रभा प्रेस में 40 रुपये मासिक वेतन पर नौकरी करनी पड़ी। इसके बाद सन् 1899 ई० में काशी के हिन्दू स्कूल में कुछ दिनों तक अध्यापन कार्य किया, फिर लखनऊ के कालीचरण हाईस्कूल में प्रधानाध्यापक हो गये। इस पद पर श्यामसुन्दर जी ने नौ वर्ष तक कार्य किया। इन्होंने 16 जुलाई, सन् 1893 ई० को विद्यार्थी-काल में ही अपने दो सहयोगियों रामनारायण मिश्र और ठाकुर शिवकुमार सिंह की सहायता से ‘नागरी प्रचारिणी सभा’ की स्थापना की। अन्त में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष हो गये और अवकाश ग्रहण करने तक इसी पद पर बने रहे। निरन्तर कार्य करते रहने के कारण इनका स्वास्थ्य गिर गया और सन् 1945 ई० में इनकी मृत्यु हो गयी।
अपने जीवन में श्यामसुन्दरदास जी ने पचास वर्षों तक लगातार हिन्दी की सेवा की। हिन्दी में उन्होंने कोश, इतिहास, काव्यशास्त्र, भाषा-विज्ञान, शोधकार्य, उपयोगी साहित्य, पाठ्य-पुस्तक और सम्पादित ग्रन्थ आदि से समृद्ध किया, उसके महत्व की प्रतिष्ठा की, उसकी आवाज को जन-जन तक पहुँचाया, उसे खण्डहरों से उठाकर विश्वविद्यालयों के भव्य-भवनों में प्रतिष्ठित किया। वह अन्य भाषाओं के समकक्ष बैठने की अधिकारिणी हुई। हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने इन्हें ‘साहित्य वाचस्पति’ और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ने ‘डी0 लिट्’ की उपाधि देकर इनकी साहित्यिक सेवाओं की महत्ता को स्वीकार किया।
प्रसिद्ध लेखकों के जीवन परिचय
श्यामसुन्दरदास की प्रमुख कृतियों का विवरण इस प्रकार है-
निबन्ध– ‘गद्य-कुसुमावली’ के अतिरिक्त ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका’ में भी इनके लेख प्रकाशित हुए। आलोचना ग्रंथ– ‘साहित्यालोचन’, ‘गोस्वामी तुलसीदास’, ‘भारतेन्दु हरिश्चन्द्र’, ‘रूपक-रहस्य’।
भाषा-विज्ञान- भाषा-विज्ञान’, ‘हिन्दी भाषा का विकास’, ‘हिन्दी भाषा और साहित्य।
संपादित रचनाएँ—‘हिन्दी-शब्द-सागर’, ‘वैज्ञानिक कोश’, ‘हिन्दी-कोविदमाला’, ‘पृथ्वीराजरासो, ‘नासिकेतोपाख्यान’, ‘इन्द्रावती’, ‘हम्मीर रासो’, ‘शाकुन्तल नाटक’, ‘श्रीरामचरितमानस’, ‘दीनदयाल गिरि की ग्रंथावली’, ‘मेघदूत’, ‘परमाल रासो’। आपने ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका’ का भी दीर्घकाल तक संपादन किया।
अन्य रचनाएँ– ‘भाषा रहस्य’, ‘मेरी आत्मकहानी’, ‘हिन्दी-साहित्य-निर्माता’, ‘साहित्यिक लेख।
बाबू श्यामसुन्दरदास जी की भाषा सिद्धान्त निरूपण करनेवाली सीधी, ठोस, भावुकता-विहीन और निरलंकृत होती है। इन्होंने संस्कृत शब्दों का प्रयोग किया और जहाँ तक बन पड़ा है, विदेशी शब्दों के प्रयोग से बचते रहे है। कहीं-कहीं पर इनकी भाषा दुरूह और अस्पष्ट भी हो जाती है। उसमें लोकोक्तियों का प्रयोग भी बहुत ही कम है। वास्तव में इनकी भाषा का महत्त्व उपयोगिता की दृष्टि से है और उसमें एक विशिष्ट प्रकार की साहित्यिक गुरुता है। इनकी प्रारम्भिक कृतियों में भाषा-शैथिल्य दिखायी देता है किन्तु धीरे-धीरे वह प्रौढ़, स्वच्छ, परिमार्जित और संयत होती गयी है।
बाबू साहब ने अत्यन्त गंभीर विषयों को बोधगम्य शैली में प्रस्तुत किया है। संस्कृत के तत्सम शब्दों के साथ तद्भव शब्दों का भी प्रयोग करके इन्होंने शैली को बनने से बचाया है। इनकी भाषा में उर्दू-फारसी के शब्दों तथा मुहावरों का प्रायः अभाव है। व्यंग्य, वक्रोक्ति तथा हास-परिहास से इनके निबंध प्रायः शून्य हैं। इन्होंने विचारात्मक, गवेषणात्मक तथा व्याख्यात्मक शैलियों का व्यवहार किया है। आलोचना, भाषा-विज्ञान, भाषा का इतिहास, लिपि का विकास आदि विषयों पर इन्होंने वैज्ञानिक एवं सैद्धांतिक विवेचन प्रस्तुत कर हिन्दी साहित्य को समृद्ध बनाया है।
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