NCERT Hindi Book for Class-9 reedh ki haddi
रीढ़ की हड्डी – जगदीशचंद्र माथुर
रीढ़
की हड्डी – जगदीशचंद्र माथुर
उमा :
लड़की
रामस्वरूप : लड़की का पिता
प्रेमा :
लड़की की माँ
शंकर :
लड़का
गोपालप्रसाद : लड़के का बाप
रतन : नौकर
मामूली तरह से सजा हुआ एक
कमरा। अंदर के दरवाज़े से आते हुए जिन महाशय की पीठ नज़र आ रही है वे अधेड़ उम्र
के मालूम होते हैं, एक तख्त को पकड़े हुए पीछे की ओर चलते-चलते कमरे में
आते हैं। तख्त का दूसरा सिरा उनके नौकर ने पकड़ रखा है।
बाबू : अबे धीरे-धीरे चल …अब तख्त को उधर मोड़
दे…उधर…बस, बस!
नौकर : बिछा दूँ साहब?
बाबू : (ज़रा तेज़ आवाज़ में) और क्या करेगा? परमात्मा
के यहाँ अक्ल बँट
रही थी तो तू देर से पहुंचा
था क्या?…बिछा
दूँ साब!…और यह
पसीना किसलिए बहाया है?
नौकर : (तख्त बिछाता है) ही-ही-ही।
बाबू : हँसता क्यों है?…अबे, हमने
भी जवानी में कसरतें की हैं, कलसों से नहाता था लोटों की तरह। यह तख्त क्या चीज़
है?…उसे
सीधा कर …यों …हाँ बस। …और सुन, बहू जी से दरी माँग ला, इसके ऊपर बिछाने के लिए। चद्दर भी, कल जो
धोबी के यहाँ से आई है, वही। (नौकर जाता है। बाबू साहब इस बीच में मेज़पोश ठीक
करते हैं। एक झाड़न से गुलदस्ते को साफ़ करते हैं। कुर्सियों पर भी दो चार हाथ
लगाते हैं। सहसा घर की मालकिन प्रेमा आती हैं। गंदुमी रंग, छोटा
कद। चेहरे और आवाज़ से ज़ाहिर होता है किसी काम में बहुत व्यस्त हैं। उनके
पीछे-पीछे भीगी बिल्ली की तरह नौकर आ रहा है-खाली हाथ। बाबू साहब (रामस्वरूप)
दोनों तरफ़ देखने लगते हैं….)
प्रेमा : मैं कहती हूँ तुम्हें इस वक्त धोती की
क्या ज़रूरत पड़ गई! एक तो वैसे ही जल्दी-जल्दी में….
रामस्वरूप : धोती?
प्रेमा : हाँ, अभी तो बदलकर आए हो, और फिर न जाने किसलिए…
रामस्वरूप : लेकिन
तुमसे धोती माँगी किसने?
प्रेमा : यही तो कह रहा था रतन।
रामस्वरूप : क्यों बे
रतन, तेरे
कानों में डाट लगी है क्या? मैंने कहा था-धोबी के यहाँ से जो चद्दर आई है, उसे
माँग ला…अब तेरे लिए दूसरा दिमाग कहाँ से लाऊँ। उल्लू कहीं का।
प्रेमा : अच्छा, जा पूजावाली कोठरी में लकड़ी के बक्स के ऊपर धुले हुए
कपड़े रखे हैं न! उन्हीं में से एक चद्दर उठा ला।
रतन : और दरी?
प्रेमा : दरी यहीं तो रक्खी है, कोने
में। वह पड़ी तो है।
रामस्वरूप : (दरी
उठाते हुए) और बीबी जी के कमरे में से हरिमोनियम उठा ला, और
सितार भी।…जल्दी जा।।
(रतन जाता है। पति-पत्नी तख्त
पर दरी बिछाते हैं।)
प्रेमा : लेकिन वह तुम्हारी लाडली बेटी तो मुँह फुलाए पड़ी है।
रामस्वरूप : मुँह फुलाए!…और तुम उसकी माँ, किस
मर्ज की दवा हो? जैसे-तैसे करके तो वे लोग पकड़ में आए हैं। अब तुम्हारी
बेवकूफ़ी से सारी मेहनत बेकार जाए तो मुझे दोष मत देना।
प्रेमा : तो मैं ही क्या करूँ? सारे
जतन करके तो हार गई। तुम्हीं ने उसे पढ़ा-लिखाकर इतना सिर चढ़ा रखा है। मेरी समझ
में तो ये पढ़ाई-लिखाई के जंजाल आते नहीं। अपना ज़माना अच्छा था। ‘आ ई’ पढ़ ली, गिनती सीख
ली और बहुत हुआ तो ‘स्त्री-सुबोधिनी’ पढ़ ली। सच पूछो तो ‘स्त्री-सुबोधिनी’ में ऐसी-ऐसी बातें लिखी हैं-ऐसी बातें कि क्या
तुम्हारी बी.ए., एम.ए. की पढ़ाई होगी। और आजकल के तो लच्छन ही अनोखे हैं….
रामस्वरूप : ग्रामोफ़ोन बाजा होता है न?
प्रेमा : क्यों?
रामस्वरूप : दो तरह का होता है। एक तो आदमी
का बनाया हुआ। उसे एक बार चलाकर जब चाहे तब रोक लो। और दूसरा परमात्मा का बनाया
हुआ। रिकार्ड एक बार चढ़ा तो रुकने का नाम नहीं।
प्रेमा : हटो भी। तुम्हें ठठोली ही
सूझती रहती है। यह तो होता नहीं कि उस अपनी उमा को राह पर लाते। अब देर ही कितनी
रही है उन लोगों के आने में।
रामस्वरूप : तो हुआ क्या?
प्रेमा : तुम्हीं ने तो कहा था कि
ज़रा ठीक-ठाक करके नीचे लाना। आजकल तो लड़की कितनी ही सुंदर हो, बिना
टीमटाम के भला कौन पूछता है? इसी मारे मैंने तो पौडर-वौडर उसके सामने रखा था। पर
उसे तो इन चीजों से न जाने किस जन्म की नफ़रत है। मेरा कहना था कि आँचल में मुँह
लपेटकर लेट गई। भई, मैं बाज़ आई तुम्हारी इस लड़की से!
रामस्वरूप : न जाने कैसा इसका दिमाग है! वरना
आजकल की लड़कियों के सहारे तो पौडर का कारबार चलता है।
प्रेमा : अरे मैंने तो पहले ही कहा
था। इंट्रेन्स ही पास करा देते-लड़की अपने हाथ रहती, और
इतनी परेशानी न उठानी पड़ती। पर तुम तो…
रामस्वरूप : (बात काटकर) चुप चुप… (दरवाज़े
में झाँकते हुए) तुम्हें कतई अपनी ज़बान पर काबू नहीं है। कल ही यह बता दिया था कि
उन सब लोगों के सामने ज़िक्र और ढंग से होगा। मगर तुम तो अभी से सब-कुछ उगले देती
हो। उनके आने तक तो न जाने क्या हाल करोगी!
प्रेमा : अच्छा बाबा, मैं न
बोलूँगी। जैसी तुम्हारी मर्जी हो, करना। बस मुझे तो मेरा काम बता दो।
रामस्वरूप : तो उमा को जैसे हो तैयार कर लो।
न सही पौडर। वैसे कौन बरी है। पान लेकर भेज देना उसे। और, नाश्ता
तो तैयार है न? (रतन का आना) आ गया रतन?..इधर ला, इधर! बाजा नीचे रख दे। चद्दर खोल… पकड़ तो ज़रा उधर से।
(चद्दर बिछाते
हैं।)
प्रेमा : नाश्ता तो तैयार है। मिठाई
तो वे लोग ज़्यादा खाएँगे नहीं। कुछ नमकीन चीजें बना दी हैं। फल रखे हैं ही। चाय
तैयार है, और टोस्ट भी। मगर हाँ, मक्खन? मक्खन तो आया ही नहीं।
रामस्वरूप : क्या कहा? मक्खन नहीं
आया? तुम्हें
भी किस वक्त याद आई है। जानती हो कि मक्खन वाले की दुकान दूर है, पर
तुम्हें तो ठीक वक्त पर कोई बात सूझती ही नहीं। अब बताओ, रतन
मक्खन लाए कि यहाँ का काम करे। दफ़्तर के चपरासी से कहा था आने के लिए, सो
नखरों के मारे…
प्रेमा : यहाँ का काम कौन ज्यादा है? कमरा
तो सब ठीक-ठाक है ही। बाजा-सितार आ ही गया। नाश्ता यहाँ बराबर वाले कमरे में ट्रे
में रखा हुआ है, सो तुम्हें पकड़ा दूंगी। एकाध चीज़ खुद ले आना। इतनी देर
में रतन मक्खन ले ही आएगा…दो आदमी ही तो हैं।
रामस्वरूप : हाँ एक तो बाबू गोपाल प्रसाद और
दूसरा खुद लड़का है। देखो, उमा से कह देना कि ज़रा करीने से आए। ये लोग ज़रा ऐसे ही है…गुस्सा तो मुझे बहुत आता है इनके दकियानूसी
खयालों पर। खुद पढ़े-लिखे हैं, वकील हैं, सभा-सोसाइटियों में जाते हैं, मगर
लड़की चाहते हैं ऐसी कि ज्यादा पढ़ी-लिखी न हो।
प्रेमा : और लड़का?
रामस्वरूप : बताया तो था तुम्हें। बाप सेर है
तो लड़का सवा सेर। बी.एस.सी. के बाद लखनऊ में ही तो पढ़ता है, मेडिकल
कालेज में। कहता है कि शादी का सवाल दूसरा है, तालीम का दूसरा। क्या करूँ मजबूरी है। मतलब अपना है
वरना इन लड़कों और इनके बापों को ऐसी कोरी-कोरी सुनाता कि ये भी…
रतन : (जो अब तक दरवाज़े के पास
चुपचाप खड़ा हुआ था, जल्दी-जल्दी) बाबू जी, बाबू जी!
रामस्वरूप : किया हैं ?
रतन : कोई आते हैं।
रामस्वरूप : (दरवाज़े
से बाहर झाँककर जल्दी मुँह अंदर करते हुए) अरे, ए प्रेमा, वे आ भी गए। (नौकर पर नज़र पड़ते ही) अरे, तू
यहीं खड़ा है, बेवकूफ़। गया नहीं मक्खन लाने? …सब
चौपट कर दिया। अबे उधर से नहीं, अंदर के दरवाजे से जा (नौकर अंदर आता है) …और तुम
जल्दी करो प्रेमा। उमा को समझा देना थोड़ा-सागा देगी। (प्रेमा जल्दी से अंदर की तरफ़ आती है। उसकी धोती
ज़मीन पर रखे हुए बाजे से अटक जाती है।)
प्रेमा : उँह। यह बाजा वह नीचे ही रख गया है, कमबख्त।
रामस्वरूप : तुम जाओ, मैं
रखे देता हूँ…जल्दी। (प्रेमा जाती है, बाबू रामस्वरूप बाजा उठाकर रखते हैं। किवाड़ों पर दस्तक।)
रामस्वरूप : हँ-हँ-हैं।
आइए, आइए…हँ-हँ-हैं।
(बाबू गोपाल प्रसाद और उनके
लड़के शंकर का आना। आँखों से लोक चतुराई टपकती है। आवाज़ से मालूम होता है कि
काफ़ी अनुभवी और फितरती महाशय हैं। उनका लड़का कुछ खीस निपोरने वाले नौजवानों में
से है। आवाज़ पतली है और खिसियाहट भरी। झुकी कमर इनकी खासियत है।)
रामस्वरूप : (अपने
दोनों हाथ मलते हुए) हँ-हँ, इधर तशरीफ़ लाइए इधर।
(बाबू गोपाल प्रसाद बैठते हैं, मगर
बेंत गिर पडता है।)
रामस्वरूप : यह
बेंत!…लाइए मुझे दीजिए। (कोने में रख देते हैं। सब बैठते हैं।) हँ-ह…मकान
ढूँढ़ने में तकलीफ़ तो नहीं हुई?
गो.
प्रसाद : (खंखार
कर) नहीं। ताँगे वाला जानता था।…और फिर हमें तो यहाँ आना ही था। रास्ता मिलता
कैसे नहीं?
रामस्वरूप : हँ-हँ-हैं।
यह तो आपकी बड़ी मेहरबानी है। मैंने आपको तकलीफ़ तो दी…
गो.
प्रसाद : अरे
नहीं साहब! जैसा मेरा काम वैसा आपका काम। आखिर लड़के की शादी तो करनी ही है। बल्कि
यों कहिए कि मैंने आपके लिए खासी परेशानी कर दी!
रामस्वरूप : हँ-हैं-हैं!
यह लीजिए, आप तो
मुझे काँटों में घसीटने लगे। हम तो आपके-हँ-हँ-सेवक ही हैं-ह-हँ। (थोड़ी देर बाद
लड़के की ओर मुखातिब होकर) और कहिए, शंकर बाबू, कितने दिनों की छुट्टियाँ हैं?
शंकर : जी, कालिज की तो छुट्टियाँ नहीं हैं। ‘वीक-एण्ड’ में
चला आया था।
रामस्वरूप : आपके
कोर्स खत्म होने में तो अब सालभर रहा होगा?
शंकर : जी, यही कोई साल दो साल।
रामस्वरूप : साल दो
साल?
शंकर : हँ-हँ-हँ!…जी, एकाध
साल का ‘मार्जिन’ रखता
हूँ…
गो.
प्रसाद : बात यह है साहब कि यह शंकर एक साल बीमार हो
गया था। क्या बताएँ, इन लोगों को इसी उम्र में सारी बीमारियाँ सताती हैं।
एक हमारा ज़माना था कि स्कूल से आकर दर्जनों कचौड़ियाँ उडा जाते थे, मगर फिर
जो खाना खाने बैठते तो वैसी-की-वैसी ही भूख!
रामस्वरूप : कचौड़ियाँ
भी तो उस ज़माने में पैसे की दो आती थीं।
गो.
प्रसाद : जनाब, यह हाल था कि चार पैसे में ढेर-सी बालाई आती थी। और
अकेले दो आने की हज़म करने की ताकत थी, अकेले! और अब तो बहुतेरे खेल वगैरह भी होते हैं स्कूल
में। तब न कोई वॉली-बॉल जानता था, न टेनिस न बैडमिंटन। बस कभी हॉकी या क्रिकेट कुछ लोग
खेला करते थे। मगर मजाल कि कोई कह जाए कि यह लड़का कमज़ोर है।
(शंकर और रामस्वरूप खीसें
निपोरते हैं।)
रामस्वरूप : जी हाँ, जी हाँ, उस
ज़माने की बात ही दूसरी थी…हँ-हँ!
गो.
प्रसाद : (जोशीली आवाज़ में) और पढ़ाई का यह हाल था कि
एक बार कुर्सी पर बैठे कि बारह घंटे की ‘सिटिंग’ हो गई, बारह घंटे! जनाब, मैं सच कहता हूँ कि उस जमाने का मैट्रिक भी वह
अंग्रेज़ी लिखता था फ़र्राटे की, कि
आजकल के एम.ए. भी मुकाबिला नहीं कर सकते।
रामस्वरूप : जी हाँ, जी
हाँ! यह तो है ही।
गो.
प्रसाद : माफ़ कीजिएगा बाबू रामस्वरूप, उस
ज़माने की जब याद आती है, अपने को जब्त करना मुश्किल हो जाता है! रामस्वरूप :
हँ-ह-हँ!..जी हाँ वह तो रंगीन ज़माना था, रंगीन ज़माना। हँ-हँ-हँ!
(शंकर भी ही-हीं करता है।)
गो.
प्रसाद : (एक साथ अपनी आवाज़ और तरीका बदलते हुए) अच्छा, तो
साहब, ‘बिज़नेस’ की
बातचीत हो जाए।
रामस्वरूप : (चौंककर)
बिज़नेस? बिज़…(समझकर)
ओह…अच्छा, अच्छा। लेकिन ज़रा नाश्ता तो कर लीजिए।
(उठते हैं।)
गो.
प्रसाद : यह सब आप क्या तकल्लुफ़ करते हैं!
रामस्वरूप : हँ-हँ-हँ!
तकल्लुफ़ किस बात का? हँ हँ! यह तो मेरी बड़ी तकदीर है कि आप मेरे यहाँ
तशरीफ़ लाए। वरना मैं किस काबिल हूँ। हँ-हँ!…माफ़ कीजिएगा ज़रा। अभी हाज़िर हुआ।
(अंदर जाते हैं।)
गो.
प्रसाद : (थोड़ी देर बाद दबी आवाज़ में) आदमी तो भला
है। मकान-वकान से हैसियत भी बुरी नहीं मालूम होती। पता चले, लड़की
कैसी है।
शंकर : जी…
(कुछ खखारकर इधर-उधर देखता
है।)
गो.
प्रसाद : क्यों, क्या हुआ? शंकर कुछ नहीं।
गो.
प्रसाद : झुककर क्यों बैठते हो? ब्याह
तय करने आए हो, कमर सीधी करके बैठो। तुम्हारे दोस्त ठीक कहते हैं कि शंकर
की ‘बैकबोन’…
(इतने
में बाबू रामस्वरूप आते हैं, हाथ में चाय की ट्रे लिए हुए। मेज़ पर रख देते हैं)
गो.
प्रसाद : आखिर आप माने नहीं।
रामस्वरूप : (चाय
प्याले में डालते हुए) हँ-हँ-हँ! आपको विलायती चाय पसंद है या हिंदुस्तानी?
गो.
प्रसाद : नहीं-नहीं साहब, मुझे आधा दूध और आधी चाय दीजिए। और ज़रा चीनी ज्यादा
डालिएगा। मुझे तो भई यह नया फ़ैशन पसंद नहीं। एक तो वैसे ही चाय में पानी काफ़ी
होता है, और फिर
चीनी भी नाम के लिए डाली जाए तो ज़ायका क्या रहेगा?
रामस्वरूप : हैं-हैं, कहते
तो आप सही है।
(प्याला पकड़ाते हैं।)
शंकर : (खंखारकर) सुना है, सरकार
अब ज़्यादा चीनी लेने वालों पर ‘टैक्स’ लगाएगी।
गो.
प्रसाद : (चाय पीते हुए) हूँ। सरकार जो चाहे सो कर ले, पर अगर
आमदनी करनी है तो सरकार को बस एक ही टैक्स लगाना चाहिए।
रामस्वरूप : (शंकर को
प्याला पकड़ाते हुए) वह क्या?
गो.
प्रसाद : खूबसूरती पर टैक्स! (रामस्वरूप और शंकर हँस
पड़ते हैं) मज़ाक नहीं साहब, यह ऐसा टैक्स है जनाब कि देने वाले चँ भी न करेंगे।
बस शर्त यह है कि हर एक औरत पर यह छोड़ दिया जाए कि वह अपनी खूबसूरती के ‘स्टैंडर्ड’ के
माफ़िक अपने ऊपर टैक्स तय कर ले। फिर देखिए, सरकार की कैसी आमदनी बढ़ती है।
रामस्वरूप : (ज़ोर से
हँसते हुए) वाह-वाह! खूब सोचा आपने! वाकई आजकल यह खूबसूरती का सवाल भी बेढब हो गया
है। हम लोगों के ज़माने में तो यह कभी उठता भी न था। (तश्तरी गोपाल प्रसाद की तरफ़
बढ़ाते हैं) लीजिए।
गो.
प्रसाद : (समोसा उठाते हुए) कभी नहीं साहब, कभी
नहीं।
रामस्वरूप : (शंकर की
तरफ़ मुखातिब होकर) आपका क्या खयाल है शंकर बाबू?
शंकर : किस मामले में?
रामस्वरूप : यही कि
शादी तय करने में खूबसूरती का हिस्सा कितना होना चाहिए।
गो.
प्रसाद : (बीच में ही) यह बात दूसरी है बाबू रामस्वरूप, मैंने
आपसे पहले भी कहा था, लड़की का खूबसूरत होना निहायत ज़रूरी है। कैसे भी हो, चाहे
पाउडर वगैरह लगाए, चाहे वैसे ही। बात यह है कि हम आप मान भी जाएँ, मगर घर
की औरतें तो राजी नहीं होतीं। आपकी लड़की तो ठीक है?
रामस्वरूप : जी हाँ, वह तो
अभी आप देख लीजिएगा।
गो.
प्रसाद : देखना क्या। जब आपसे इतनी बातचीत हो चुकी है, तब तो
यह रस्म ही समझिए।
रामस्वरूप : हँ-हँ, यह तो
आपका मेरे ऊपर भारी अहसान है। हँ-हँ!
गो.
प्रसाद : और जायचा (जन्मपत्र) तो मिल ही गया होगा।
रामस्वरूप : जी, जायचे
का मिलना क्या मुश्किल बात है। ठाकुर जी के चरणों में रख दिया। बस, खुद-ब-खुद
मिला हुआ समझिए।
गो.
प्रसाद : यह ठीक कहा आपने, बिलकुल
ठीक (थोड़ी देर रुककर) लेकिन हाँ, यह जो मेरे कानों में भनक पड़ी है, यह तो
गलत है न?
रामस्वरूप : (चौंककर)
क्या?
गो.
प्रसाद : यह पढ़ाई-लिखाई के बारे में!…जी हाँ, साफ़
बात है साहब, हमें ज्यादा पढ़ी-लिखी लड़की नहीं चाहिए। मेम साहब तो रखनी
नहीं. कौन भुगतेगा उनके नखरों को। बस हद से हद मैट्रिक पास होनी चाहिए…क्यों शंकर? शंकर
जी हाँ, कोई
नौकरी तो करानी नहीं।
रामस्वरूप : नौकरी का
तो कोई सवाल ही नहीं उठता।
गो.
प्रसाद : और क्या साहब! देखिए कुछ लोग मुझसे कहते हैं, कि जब
आपने अपने लड़कों को बी.ए., एम.ए. तक पढ़ाया है, तब उनकी बहुएँ भी ग्रेजुएट लीजिए। भला पूछिए इन अक्ल
के ठेकेदारों से कि क्या लड़कों की
पढ़ाई और लड़कियों की पढ़ाई एक बात है। अरे मर्दो का काम तो है ही पढ़ना और काबिल
होना। अगर औरतें भी वही करने लगीं, अंग्रेजी
अखबार पढ़ने लगी और ‘पालिटिक्स’ वगैरह पर बहस करने लगीं तब तो हो चुकी गृहस्थी। जनाब, मोर के
पंख होते हैं मोरनी के नहीं, शेर के बाल होते हैं, शेरनी के नहीं। रामस्वरूप : जी हाँ, और
मर्द के दाढ़ी होती है, औरत के नहीं।……………!
(शंकर भी हँसता है, मगर
गोपाल प्रसाद गंभीर हो जाते हैं।)
गो.
प्रसाद : हाँ, हाँ। वह भी सही है। कहने का मतलब यह है कि कुछ बातें
दुनिया में ऐसी हैं जो सिर्फ़ मर्दो के लिए हैं और ऊँची तालीम भी ऐसी चीजों में से
एक है।
रामस्वरूप : (शंकर
से) चाय और लीजिए।
शंकर : धन्यवाद। पी चुका।। रामस्वरूप : (गोपाल
प्रसाद से) आप?
गो.
प्रसाद : बस साहब, अब तो खत्म ही कीजिए।
रामस्वरूप : आपने तो
कुछ खाया ही नहीं। चाय के साथ ‘टोस्ट’ नहीं थे। क्या बताएँ, वह मक्खन…
गो.
प्रसाद : नाश्ता ही तो करना था साहब, कोई
पेट तो भरना था नहीं। और फिर टोस्ट-वोस्ट मैं खाता भी नहीं।
रामस्वरूप : हँ…हँ।
(मेज़ को एक तरफ़ सरका देते हैं। फिर अंदर के दरवाज़े की तरफ़ मुँह कर ज़रा ज़ोर
से) अरे, ज़रा
पान भिजवा देना…! …सिगरेट मँगवाऊँ?
गो.
प्रसाद : जी नहीं!
(पान की तश्तरी हाथों में लिए
उमा आती है। सादगी के कपड़े। गर्दन झुकी हुई। बाबू गोपाल प्रसाद आँखें गड़ाकर और
शंकर आँखें छिपाकर उसे ताक रहे हैं।)
रामस्वरूप : …हॅ…हॅ…यही, हँ…हैं, आपकी
लड़की है। लाओ बेटी पान मुझे दो। (उमा पान की तश्तरी अपने पिता को देती है। उस समय
उसका चेहरा ऊपर को उठ जाता है। और नाक पर रखा हुआ सोने की रिम वाला चश्मा दीखता है। बाप-बेटे चौंक उठते हैं।)
(गोपाल प्रसाद और शंकर-एक
साथ) चश्मा!
रामस्वरूप : (जरा
सकपकाकर) जी, वह तो…वह…पिछले महीने में इसकी आँखें दुखनी आ गई थीं, सो कुछ
दिनों के लिए चश्मा लगाना पड़ रहा है।
गो.
प्रसाद : पढ़ाई-वढ़ाई की वजह से तो नहीं है कुछ?
रामस्वरूप : नहीं
साहब, वह तो
मैंने अर्ज़ किया न।
गो.
प्रसाद : हूँ। (संतुष्ट होकर कुछ कोमल स्वर में) बैठो
बेटी।
रामस्वरूप : वहाँ बैठ
जाओ उमा, उस
तख्त पर, अपने
बाजे-वाजे के पास।
(उमा बैठती है।)
गो.
प्रसाद : चाल में तो कुछ खराबी है नहीं। चेहरे पर भी
छवि है।… हाँ, कुछ गाना-बजाना सीखा है?
रामस्वरूप : जी हाँ, सितार
भी, और
बाजा भी। सुनाओ तो उमा एकाध गीत सितार के साथ। (उमा सितार उठाती है। थोड़ी देर बाद
मीरा का मशहूर गीत ‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई’ गाना
शुरू कर देती है। स्वर से ज़ाहिर है कि गाने का अच्छा ज्ञान है। उसके स्वर में
तल्लीनता आ जाती है, यहाँ तक कि उसका मस्तक उठ जाता है। उसकी आँखें शंकर
की झेंपती-सी आँखों से मिल जाती हैं और वह गाते-गाते एक साथ रुक जाती है।)
रामस्वरूप : क्यों, क्या
हुआ? गाने
को पूरा करो उमा।
गो.
प्रसाद : नहीं-नहीं साहब, काफ़ी है। लड़की आपकी अच्छा गाती है।
(उमा सितार रखकर अंदर जाने को
उठती है।)
गो.
प्रसाद : अभी ठहरो, बेटी।
रामस्वरूप : थोड़ा और
बैठी रहो, उमा!
(उमा बैठती है।)
गो.
प्रसाद : (उमा से) तो तुमने पेंटिंग वेंटिंग भी…
उमा : (चुप)
रामस्वरूप : हाँ, वह तो
मैं आपको बताना भूल ही गया। यह जो तसवीर टंगी हुई है, कुत्ते
वाली, इसी ने
खींची है। और वह उस दीवार पर भी।
गो.
प्रसाद : हूँ! यह तो बहुत अच्छा है। और सिलाई वगैरह?
रामस्वरूप : सिलाई तो
सारे घर की इसी के ज़िम्मे रहती है, यहाँ तक कि मेरी कमीजें भी। हँ…हॅ…हैं।
गो.
प्रसाद : ठीक।…लेकिन, हाँ बेटी, तुमने कुछ इनाम-विनाम भी जीते हैं? (उमा
चुप। रामस्वरूप इशारे के लिए खाँसते हैं। लेकिन उमा चुप है उसी तरह गर्दन झुकाए।
गोपाल प्रसाद अधीर हो उठते हैं और रामस्वरूप सकपकाते
हैं।)
रामस्वरूप : जवाब दो, उमा।
(गोपाल प्रसाद से) हैं-हैं, ज़रा शरमाती है, इनाम तो इसने…
गो.
प्रसाद : (जरा रूखी आवाज़ में) ज़रा इसे भी तो मुँह
खोलना चाहिए।
रामस्वरूप : उमा, देखो, आप
क्या कह रहे हैं। जवाब दो न।
उमा : (हलकी
लेकिन मज़बूत आवाज़ में) क्या जवाब दूं बाबू जी! जब कुर्सी-मेज़ बिकती है तब
दुकानदार कुर्सी- मेज़ से कुछ नहीं पूछता, सिर्फ
खरीदार को दिखला देता है। पसंद आ गई तो अच्छा है, वरना…
रामस्वरूप : (चौंककर
खड़े हो जाते हैं) उमा, उमा!
उमा : अब
मुझे कह लेने दीजिए बाबूजी!…ये जो महाशय मेरे खरीदार बनकर आए हैं, इनसे
ज़रा पूछिए कि क्या लड़कियों के दिल नहीं होता? क्या उनके चोट नहीं लगती? क्या
बेबस भेड़-बकरियाँ हैं, जिन्हें कसाई अच्छी तरह देख-भालकर…?
गो.
प्रसाद : (ताव में आकर) बाबू रामस्वरूप, आपने
मेरी इज़्ज़त उतारने के लिए मुझे यहाँ बुलाया था?
उमा : (तेज़ आवाज़ में) जी हाँ, और
हमारी बेइज्जती नहीं होती जो आप इतनी देर से नाप-तोल कर रहे हैं? और ज़रा
अपने इन साहबजादे से पूछिए कि अभी पिछली फरवरी में ये लड़कियों के होस्टल के
इर्द-गिर्द क्यों घूम रहे थे, और वहाँ से कैसे भगाए गए थे!
शंकर : बाबू जी, चलिए।
गो.
प्रसाद : लड़कियों के होस्टल में?…क्या
तुम कालेज में पढ़ी हो?
(रामस्वरूप चुप!)
उमा : जी हाँ, कालेज में पढ़ी हूँ। मैंने बी.ए. पास किया है। कोई
पाप नहीं किया, कोई चोरी नहीं की, और न आपके पुत्र की तरह ताक-झाँक कर कायरता दिखाई है।
मुझे अपनी इज़्ज़त, अपने मान का खयाल तो है। लेकिन इनसे पूछिए कि ये किस
तरह नौकरानी के पैरों पड़कर अपना मुँह छिपाकर भागे थे।
रामस्वरूप : उमा, उमा?
गो.
प्रसाद : (खड़े होकर गुस्से में) बस हो चुका। बाबू
रामस्वरूप, आपने मेरे साथ दगा किया। आपकी लड़की बी.ए. पास है और आपने
मुझसे कहा था कि सिर्फ़ मैट्रिक तक पढ़ी है। लाइए…मेरी छड़ी कहाँ है? मैं
चलता हूँ (बेंत ढूँढ़कर उठाते हैं।) बी.ए. पास? उफ़्फ़ोह! गज़ब हो जाता! झूठ का भी कुछ ठिकाना है। आओ
बेटे, चलो…
(दरवाज़े की ओर बढ़ते हैं।)
उमा : जी हाँ, जाइए, ज़रूर चले जाइए। लेकिन घर जाकर ज़रा यह पता लगाइएगा
कि आपके लाड़ले बेटे के रीढ़ की हड्डी भी है या नहीं-यानी बैकबोन, बैकबोन!
(बाबू गोपाल प्रसाद के चेहरे पर बेबसी का गुस्सा है और उनके लड़के के रूलासापन।
दोनों बाहर चले जाते हैं। बाबू रामस्वरूप कुर्सी पर धम से बैठ जाते हैं। उमा सहसा
चुप हो जाती है। प्रेमा का घबराहट की हालत में आना।)
प्रेमा : उमा, उमा…रो
रही है!
(यह सुनकर रामस्वरूप खड़े
होते हैं। रतन आता है।)
रतन : बाबू जी, मक्खन…
(सब रतन की तरफ़ देखते हैं और
परदा गिरता है।)