नाखून क्यों बढ़ते हैं ? निबंध : Nakhun Kyu Badhte Hai ? Nibandh

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Nakhun Kyu Badhte Haiby Acharya Hazari Prasad Dwivedi : नाखून क्यों बढ़ते है आचार्यहजारी प्रसाद द्विवेदी

                                                                              

            Acharya Hazari Prasad Dwivedi ने अपने साहित्य के माध्यम से भारतीय संस्कृति की मानवातावादी को अखण्ड बनाए रखने का सराहनीय प्रयास किया है। इस पोस्ट में हम इनके निबंध नाख़ून क्यों बढ़ते हैं  (Nakhun Kyu Badhte Hai ) के बारे में बता रहे हैं।

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          बच्‍चे कभी-कभी चक्‍कर में डाल देनेवाले प्रश्‍न कर बैठते हैं। अल्‍पज्ञ पिता बड़ा दयनीय जीव होता है। मेरी छोटी लड़की ने जब उस दिन पूछ दिया कि आदमी के नाखून क्‍यों बढ़ते हैं, (Nakhun Kyu Badhte Hai ) तो मैं कुछ सोच ही नहीं सका। हर तीसरे दिन नाखून बढ़ जाते हैं, बच्‍चे कुछ दिन तक अगर उन्‍हें बढ़ने दें, तो माँ-बाप अक्‍सर उन्‍हें डॉटा करते हैं। पर कोई नहीं जानता कि ये अभागे नाखून क्‍यों इस प्रकार बढ़ा करते है। काट दीजिए, वे चुपचाप दंड स्‍वीकार कर लेंगे, पर निर्लज्‍ज अपराधी की भाँति फिर छूटते ही सेंध पर हाजिर। आखिर ये इतने बेहया क्‍यों हैं ?

          कुछ लाख ही वर्षों की बात है, जब मनुष्‍य जंगली था, वनमानुष जैसा। उसे नाखून की जरूरत थी। उसकी जीवन रक्षा के लिए नाखून बहुत जरूरी थे। असल में वही उसके अस्‍त्र थे। दाँत भी थे, पर नाखून के बाद ही उनका स्‍थान था। उन दिनों उसे जूझना पड़ता था, प्रतिद्वंद्वियों को पछाड़ना पड़ता था। नाखून उसके लिए आवश्‍यक अंग था। फिर धीरे-धीरे वह अपने अंग से बाहर की वस्‍तुओं का सहारा लेने लगा। पत्‍थर के ढेले और पेड़ की डालें काम में लाने लगा (रामचंद्रजी की वानरी सेना के पास ऐसे ही अस्‍त्र थे)। उसने हड्डियों के भी हथियार बनाए। इन हड्डी के हथियारों में सबसे मजबूत और सबसे ऐतिहासिक था देवताओं के राजा का वज्र, जो दधीचि मुनि की हड्डियों से बना था। मनुष्‍य और आगे बढ़ा। उसने धातु के हथियार बनाए। जिनके पास लोहे के शस्‍त्र और अस्‍त्र थे, वे विजयी हुए। देवताओं के राजा तक को मनुष्‍यों के राजा से इसलिए सहायता लेनी पड़ती थी कि मनुष्‍यों के राजा के पास लोहे के अस्‍त्र थे। असुरों के पास अनेक विद्याएँ थीं, पर लोहे के अस्‍त्र नहीं थे, शायद घोड़े भी नहीं थे। आर्यों के पास ये दोनों चीजें थी। आर्य विजयी हुए। फिर इतिहास अपनी गति से बढ़ता गया। नाग हारे, सुपर्ण हारे, यक्ष हारे, गंधर्व हारे, असुर हारे, राक्षस हारे। लोहे के अस्‍त्रों ने बाजी मार ली। इतिहास आगे बढ़ा। पलीते-वाली बंदूकों ने, कारतूसों ने, तोपों ने, बमों ने, बमवर्षक वायुयानों ने इतिहास को किस कीचड़-भरे घाट तक घसीटा है, यह सबको मालूम है। नख-धर मनुष्‍य अब एटम-बम पर भरोसा करके आगे की ओर चल पड़ा है। पर उसके नाखून अब भी बढ़ रहे हैं। अब भी प्रकृति मनुष्‍य को उसके भीतरवाले अस्‍त्र से वंचित नहीं कर रही है, अब भी वह याद दिला देती है कि तुम्‍हारे नाखून को भुलाया नहीं जा सकता। तुम वही लाख वर्ष पहले के नखदंतावलंबी जीव हो – पशु के साथ एक ही सतह पर विचरनेवाले और चरनेवाले।

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         ततः किम्। मैं हैरान होकर सोचता हूँ कि मनुष्‍य आज अपने बच्‍चों को नाखून न काटने के लिए डाँटता है। किसी दिन – कुछ थोड़े लाख वर्ष पूर्व – वह अपने बच्‍चों को नाखून नष्‍ट करने पर डाँटता रहा होगा। लेकिन प्रकृति है कि वह अब भी नाखून को जिलाए जा रही है और मनुष्‍य है कि वह अब भी उसे काटे जा रहा है। वे कंबख्‍त रोज बढ़ते हैं, क्‍योंकि वे अंधे हैं, नहीं जानते कि मनुष्‍य को इससे कोटि-कोटि गुना शक्तिशाली अस्‍त्र मिल चुका है। मुझे ऐसा लगता है कि मनुष्‍य अब नाखून को नहीं चाहता। उसके भीतर बर्बर-युग का कोई अवशेष रह जाय, यह उसे असह्य है। लेकिन यह कैसे कहूँ। नाखून काटने से क्‍या होता है? मनुष्‍य की बर्बरता घटी कहाँ है, वह तो बढ़ती जा रही है। मनुष्‍य के इतिहास में हिरोशिमा का हत्‍याकांड बार-बार थोड़े ही हुआ है? यह तो उसका नवीनतम रूप है। मैं मनुष्‍य के नाखून की ओर देखता हूँ, तो कभी-कभी निराश हो जाता हूँ। ये उसकी भयंकर पाशवी वृत्ति के जीवन प्रतीक हैं। मनुष्‍य की पशुता को जितनी बार भी काट दो, वह मरना नहीं जानती।

          कुछ हजार साल पहले मनुष्‍य ने नाखून को सुकुमार विनोदों के लिए उपयोग में लाना शुरू किया था। वात्‍स्‍यायन के ‘कामसूत्र’ से पता चलता है कि आज से दो हजार वर्ष पहले का भारतवासी नाखूनों को जमके सँवारता था। उनके काटने की कला काफी मनोरंजक बताई गई है। त्रिकोण, वर्तुलाकार, चंद्राकार, दंतुल आदि विविध आकृतियों के नाखून उन दिनों विलासी नागरिकों के न जाने किस काम आया करते थे। उनको सिक्‍थक (मोम) और अलक्‍तक (आलता) से यत्‍नपूर्वक रगड़कर लाल और चिकना बनाया जाता था। गौड़ देश के लोग उन दिनों बड़े-बड़े नखों को पसंद करते थे और दाक्षिणात्‍य लोग छोटे नखों को। अपनी-अपनी रुचि है, देश की भी और काल की भी। लेकिन समस्‍त अधोगामिनी वृत्तियों की ओर नीचे खींचनेवाली वस्‍तुओं को भारतवर्ष ने मनुष्‍योचित बनाया है, यह बात चाहूँ भी तो भूल नहीं सकता।

          मानव-शरीर का अध्‍ययन करनेवाले प्राणि-विज्ञानियों का निश्चित मत है कि मानव-चित्त की भाँति मानव-शरीर में भी बहुत-सी अभ्‍यासजन्‍य सहज वृत्तियाँ रह गई हैं। दीर्घकाल तक उनकी आवश्‍यकता रही है। अतएव शरीर ने अपने भीतर एक ऐसा गुण पैदा कर लिया है कि वे वृत्तियाँ अनायास ही और शरीर के अनजान में भी, अपने-आप काम करती है। नाखून का बढ़ना उसमें से एक है, केश का बढ़ना दूसरा है, दाँत का दुबारा उठना तीसरा है, पलकों का गिरना चौथा है। और असल में सहजात वृत्तियाँ अनजान की स्‍मृतियाँ को ही कहते हैं। हमारी भाषा में भी इसके उदाहरण मिलते हैं। अगर आदमी अपने शरीर की, मन की और वाक् की अनायास घटनेवाली वृत्तियों के विषय में विचार करे, तो उसे अपनी वास्‍तविक प्रवृत्ति पहचानने में बहुत सहायता मिले। पर कौन सोचता है? सोचना तो क्‍या, उसे इतना भी पता नहीं चलता कि उसके भीतर नख बढ़ा लेने की जो सहजात वृत्ति है, वह उसके पशुत्‍व का प्रमाण है। उन्‍हें काटने की जो प्रवृत्ति है, वह उसकी मनुष्‍यता की निशानी है और यद्यपि पशुत्‍व के चिह्न उसके भीतर रह गए हैं, पर वह पशुत्‍व को छोड़ चुका है। पशु बनकर वह आगे नहीं बढ़ सकता। उसे कोई और रास्‍ता खोजना चाहिए। अस्‍त्र बढ़ाने की प्रवृत्ति मनुष्‍यता की विरोधिनी है।

           मेरा मन पूछता है – किस ओर? मनुष्‍य किस ओर बढ़ रहा है? पशुता की ओर या मनुष्‍यता की ओर? अस्‍त्र बढ़ाने की ओर या अस्‍त्र काटने की ओर? मेरी निर्बोध बालिका ने मानो मनुष्‍य जाति से ही प्रश्‍न किया है – जानते हो, नाखून क्‍यों बढ़ते हैं (Nakhun Kyu Badhte Hai )? यह हमारी पशुता के अवशेष हैं। मैं भी पूछता हूँ – जानते हो, ये अस्‍त्र-शस्‍त्र क्‍यों बढ़ रहे हैं? ये हमारी पशुता की निशानी हैं। भारतीय भाषाओं में प्रायः ही अँग्रेजी के ‘इंडिपेंडेस’ शब्‍द का समानार्थक शब्‍द नहीं व्‍यवहृत होता। 15 अगस्‍त को जब अँग्रेजी भाषा के पत्र ‘इंडिपेंडेन्‍स’ की घोषणा कर रहे थे, देशी भाषा के पत्र ‘स्‍वाधीनता दिवस’ की चर्चा कर रहे थे। ‘इंडिपेंडेन्‍स’ का अर्थ है अनधीनता या किसी की अधीनता का अभाव, पर ‘स्‍वाधीनता’ शब्‍द का अर्थ है अपने ही अधीन रहना। अँग्रेजी में कहना हो, तो ‘सेल्‍फडिपेंडेन्‍स’ कह सकते हैं। मैं कभी-कभी सोचता हूँ कि इतने दिनों तक अँग्रेजी की अनुवर्तिता करने के बाद भी भारतवर्ष ‘इंडिपेंडेन्‍स’ को अनधीनता क्‍यों नहीं कह सका? उसने अपनी आजादी के जितने भी नामकरण किए स्‍वतंत्रता, स्‍वराज्‍य, स्‍वाधीनता – उन सबमें ‘स्‍व’ का बंधन अवश्‍य रखा। यह क्‍या संयोग की बात है या हमारी समूची परंपरा ही अनजान में, हमारी भाषा के द्वारा प्रकट होती रही है? मुझे प्राणि-विज्ञानी की बात फिर याद आती है – सहजात वृत्ति अनजानी स्‍मृतियों का ही नाम है। स्‍वराज होने के बाद स्‍वभावतः ही हमारे नेता और विचारशील नागरिक सोचने लगे हैं कि इस देश को सच्‍चे अर्थ में सुखी कैसे बनाया जाय। हमारे देश के लोग पहली बार यह सब सोचने लगे हों, ऐसी बात नहीं है। हमारा इतिहास बहुत पुराना है, हमारे शास्‍त्रों में इस समस्‍या को नाना भावों और नाना पहलुओं से विचारा गया है। हम कोई नौसिखुए नहीं है, जो रातों-रात अनजान जंगल में पहुँचाकर अरक्षित छोड़ दिए गए हों। हमारी परंपरा महिमामयी उत्तराधिकार विपुल और संस्‍कार उज्ज्वल हैं। हमारे अनजान में भी ये बातें हमें एक खास दिशा में सोचने की प्रेरणा देती हैं। यह जरूर है कि परिस्थितियाँ बदल गई है। उपकरण नए हो गए हैं और उलझनों की मात्रा भी बहुत बढ़ गई है, पर मूल समस्‍याएँ बहुत अधिक नहीं बदली हैं। भारतीय चित्त जो आज भी ‘अनधीनता’ के रूप में न सोचकर ‘स्‍वाधीनता’ के रूप में सोचता है, वह हमारे दीर्घकालीन संस्‍कारों का फल है। वह ‘स्‍व’ के बंधन को आसानी से नहीं छोड़ सकता। अपने आप पर अपने-आपके द्वारा लगाया हुआ बंधन हमारी संस्‍कृति की बड़ी भारी विशेषता है। मैं ऐसा तो नहीं मानता कि जो कुछ हमारा पुराना है, जो कुछ हमारा विशेष है, उससे हम चिपटे ही रहें। पुराने का ‘मोह’ सब समय वांछनीय ही नहीं होता। मरे बच्‍चे को गोद में दबाए रहनेवाली ‘बँदरिया’ मनुष्‍य का आदर्श नहीं बन सकती। परंतु मैं ऐसा भी नहीं सोच सकता कि हम नई अनुसंधित्‍सा के नशे में चूर होकर अपना सरबस खो दें। कालिदास ने कहा था कि सब पुराने अच्‍छे नहीं होते, सब नए खराब ही नहीं होते। भले लोग दोनों की जाँच कर लेते हैं, जो हितकर होता है उसे ग्रहण करते हैं, और मूढ़ लोग दूसरों के इशारे पर भटकते रहते हैं। सो, हमें, परीक्षा करके हिकर बात सोच-लेनी होगी और अगर हमारे पूर्वसंचित भंडार में वह हितकर वस्‍तु निकल आए, तो इससे बढ़कर और क्‍या हो सकता है?

          जातियाँ इस देश में अनेक आई हैं। लड़ती-झगड़ती भी रही हैं, फिर प्रेम पूर्वक बस भी गई हैं। सभ्‍यता की नाना सीढ़ियों पर खड़ी और नाना और मुख करके चलनेवाली इन जातियों के लिए एक सामान्‍य धर्म खोज निकालना कोई सहज बात नहीं थी। भारतवर्ष के ऋषियों ने अनेक प्रकार से इस समस्‍या को सुलझाने की कोशिश की थी। पर एक बात उन्‍होंने लक्ष्‍य की थी। समस्‍त वर्णों और समस्‍त जातियों का एक सामान्‍य आदर्श भी है। वह है अपने ही बंधनों से अपने को बाँधना। मनुष्‍य पशु से किस बात में भिन्‍न है। आहार-निद्रा आदि पशु सुलभ स्‍वभाव उसके ठीक वैसे ही है, जैसे अन्‍य प्राणियों के। लेकिन वह फिर भी पशु से भिन्‍न है। उसमें संयम है, दूसरे के सुख-दुख के प्रति समवेदना है, श्रद्धा है, तप है, त्‍याग है। यह मनुष्‍य के स्‍वयं के उद्भावित बंधन हैं। इसीलिए मनुष्‍य झगड़े-डंटे को अपना आदर्श नहीं मानता, गुस्‍से में आकर चढ़ दौड़नेवाले अविवेकी को बुरा समझता है और वचन, मन और शरीर से किए गए असत्‍याचरण को गलत आचरण मानता है। यह किसी भी जाति या वर्ण या समुदाय का धर्म नहीं है। यह मनुष्‍यमात्र का धर्म है। महाभारत में इसीलिए निर्वेर भाव, सत्‍य और अक्रोध को सब वर्णों का सामान्‍य धर्म कहा है :

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एतद्धि त्रितयं श्रेष्‍ठं सर्वभूतेषु भारत।
निर्वैरता महाराज सत्‍यमक्रोध एव च।।

           अन्‍यत्र इसमें निरंतर दानशीलता को भी गिनाया गया है (अनुशासन प., 120. 10)। गौतम ने ठीक ही कहा था कि मनुष्‍य की मनुष्‍यता यही है कि वह सबके दुख सुख को सहानुभूति के साथ देखता है। यह आत्‍म निर्मित बंधन ही मनुष्‍य को मनुष्‍य बनाता है। अहिंसा, सत्‍य और अक्रोधमूलक धर्म का मूल उत्‍स यही है। मुझे आश्‍चर्य होता है कि अनजान में भी हमारी भाषा में यह भाव कैसे रह गया है। लेकिन मुझे नाखून के बढ़ने पर आश्‍चर्य हुआ था। अज्ञान सर्वत्र आदमी को पछाड़ता है। और आदमी है कि सदा उससे लोहा लेने को कमर कसे है।

           मनुष्‍य को सुख कैसे मिलेगा? बड़े-बड़े नेता कहते हैं, वस्‍तुओं की कमी है, और मशीन बैठाओ, और उत्‍पादन बढ़ाओ, और धन की वृद्धि करो और बाह्य उपकरणों की ताकत बढ़ाओ। एक बूढ़ा कहता था – बाहर नहीं, भीतर की ओर देखो। हिंसा को मन से दूर करो, मिथ्‍या को हटाओ, क्रोध और द्वेष को दूर करो, लोक के लिए कष्‍ट सहो, आराम की बात मत सोचो, प्रेम की बात सोचो, आत्‍म तोषण की बात सोचो, काम करने की बात सोचो। उसने कहा – प्रेम ही बड़ी चीज है, क्‍योंकि वह हमारे भीतर है। उच्‍छृंखलता पशु की प्रवृत्ति है, ‘स्‍व’ का बंधन मनुष्‍य का स्‍वभाव है। बूढ़े की बात अच्‍छी लगी या नहीं, पता नहीं। उसे गोली मार दी गई, आदमी के नाखून बढ़ने की प्रवृत्ति ही हावी हुई। मैं हैरान होकर सोचता हूँ – बूढ़े ने कितनी गहराई में बैठकर मनुष्‍य की वास्‍तविक चरितार्थता का पता लगाया था।

           ऐसा कोई दिन आ सकता है, जबकि मनुष्‍य के नाखूनों का बढ़ना बंद हो जाएगा। प्राणिशास्त्रियों का ऐसा अनुमान है कि मनुष्‍य का अनावश्‍यक अंग उसी प्रकार झड़ जाएगा, जिस प्रकार उसी पूँछ झड़ गई है। उस दिन मनुष्‍य की पशुता भी लुप्‍त हो जाएगी। शायद उस दिन वह मारणास्‍त्रों का प्रयोग भी बंद कर देगा। तब तक इस बात से छोटे बच्‍चों को परिचित करा देना वांछनीय जान पड़ता है कि नाखून का बढ़ना मनुष्‍य के भीतर की पशुता की निशानी है और उसे नहीं बढ़ने देना मनुष्‍य की अपनी इच्‍छा है, अपना आदर्श है। बृहत्तर जीवन में रोकना मनुष्‍यत्‍व का तकाजा है। मनुष्‍य में जो घृणा है, जो अनायास – बिना सिखाए – आ जाती है, वह पशुत्‍व का द्योतक है और अपने को संयत रखना, दूसरे के मनोभावों का आदर करना मनुष्‍य का स्‍वधर्म है। बच्‍चे यह जानें तो अच्‍छा हो कि अभ्‍यास और तप से प्राप्‍त वस्‍तुएँ मनुष्‍य की महिमा को सूचित करती हैं।

           सफलता और चरितार्थता में अंतर है। मनुष्‍य मारणास्‍त्रों के संचयन से, बाह्य उपकरणों के बाहुल्‍य से उस वस्‍तु को पा भी सकता है, जिसे उसने बड़े आडंबर के साथ सफलता का नाम दे रखा है। परंतु मनुष्‍य की चरितार्थता प्रेम में है, मैत्री में है, त्‍याग में है, अपने को सबके मंगल के लिए निःशेष भाव से दे देने में है। नाखूनों का बढ़ना मनुष्‍य की उस अंध सहजात वृत्ति का परिणाम है, जो उसके जीवन में सफलता ले आना चाहती है, उसको काट देना उस स्‍व-निर्धारित, आत्‍म-बंधन का फल है, जो उसे चरितार्थता की ओर ले जाती है।

नाखून बढ़ते हैं तो बढ़ें, मनुष्‍य उन्‍हें बढ़ने नहीं देगा।

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