मेरा छोटा सा निजी पुस्तकालय सारांश | Mera Chota Sa Niji Pustakalaya Summary | Sanchayan Chapter 4

मेरा छोटा सा निजी पुस्तकालय सारांश | Mera Chota Sa Niji Pustakalaya Summary | Sanchayan Chapter 4

मेरा छोटा सा निजी पुस्तकालय सारांश | Mera Chota Sa Niji Pustakalaya Summary | NCERT Solutions for Class 9 Hindi Sanchayan Chapter 4

मेरा छोटा सा निजी पुस्तकालय सारांश | Mera Chota Sa Niji Pustakalaya Summary | NCERT Solutions for Class 9 Hindi Sanchayan Chapter 4

          आज हम आप लोगों को संचयन भाग-1 के कक्षा-9 का पाठ-4 (NCERT Solutions for Class-9 Hindi Sanchayan Bhag-1 Chapter-4) के मेरा छोटा सा निजी पुस्तकालय पाठ का सारांश (Mera Chota Sa Niji Pustakalaya Summary ) के बारे में बताने जा रहे है जो कि धर्मवीर भारती (Dharamvir Bharati) द्वारा लिखित है। इसके अतिरिक्त यदि आपको और भी NCERT हिन्दी से सम्बन्धित पोस्ट चाहिए तो आप हमारे website के Top Menu में जाकर प्राप्त कर सकते हैं।

मेरा छोटा सा निजी पुस्तकालय सारांश | Mera Chota Sa Niji Pustakalaya Summary

          यह पाठ लेखक धर्मवीर भारती द्वारा लिखा गया है जिसमें उन्होंने अपने आत्मकथा के बारे में बताया है। सन् 1989 में जुलाई महीने की बात है जब लेखक को तीन-तीन बड़े एक के बाद एकहार्ट-अटैक आए थे उन तीनों में से एक अटैक तो इतना खतरनाक था कि उस समय लेखक की नब्जे , साँसे और यहाँ तक कि धड़कन भी बंद हो गई थी। उस समय डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया था। लेकिन डॉक्टर बोर्जेस ने हिम्मत नहीं हारी, उन्होंने लेखक को नौ सौ वॉल्ट्स के शॉक्स (shocks) दिए। जिसके कारण लेखक के जीवन तो लौट आए , परंतु इस प्रयोग के कारण लेखक का साठ प्रतिशत हार्ट सदा के लिए नष्ट हो गया। अब लेखक का केवल चालीस प्रतिशत हार्ट ही काम कर रहा था। उस हार्ट में भी तीन रुकावटें थी। जिसके कारण उनका ओपेन हार्ट ऑपरेशन करना था परंतु सर्जन को डर था कि अगर ऑपरेशन कर भी दिया गया तो यह भी हो सकता है कि ऑपरेशन के बाद हार्ट रिवाइव ही न हो। सभी ने अन्य विशेषज्ञों की राय ली, उनकी राय लेने के बाद ही ऑपरेशन की सोचेंगे। तब तक लेखक को घर में जाकर बिना हिले-डुले आराम करने की सलाह दी गई।

  संचयन भाग 1
सारांश  प्रश्नउत्तर 
अध्याय1 गिल्लू  प्रश्न-उत्तर
अध्याय स्मृति प्रश्न-उत्तर 
अध्याय3 कल्लू कुम्हार की उनाकोटी प्रश्न-उत्तर

          लेखक का मन था कि उन्हें उनके बेडरूम में नहीं रखा जाए बल्कि उनके किताबों वाले कमरे में ही रखा जाए। लेखक की इसी जिद को मानते हुए उन्हें उनके किताबों वाले कमरे में ही लेटा दिया गया। लेखक को लगता था कि उनके प्राण उस कमरे की हजारों किताबों में बसे हैं जो पिछले चालीस-पचास सालों में धीरे-धीरे लेखक के पास जमा होती गई थी। ये सभी किताबें लेखक के पास किस प्रकार जमा हुईं, उन किताबों को इकठ्ठा करने की शुरुआत लेखक ने कैसे की, इन सब के बारे में  लेखक हमें बाद में बताते है। पहले तो लेखक हमें यह बताना चाहते है कि उन्हें  किताबें पढ़ने और सम्भाल कर रखने का शौक कैसे आया।

           इन सब की शुरुआत लेखक के बचपन से होती है। उनके पिता की बहुत अच्छी सरकारी नौकरी थी। उस समय जब बर्मा रोड बन रही थी तब उनके पिता ने बहुत सारा धन कमाया था। लेकिन लेखक के जन्म के पहले ही उनके पिता को गाँधी जी के द्वारा बुलाया गया, जिसके कारण लेखक के पिता को सरकारी नौकरी छोड़नी पड़ी। पिता जी की सरकारी नौकरी छूट जाने के कारण वे लोग आर्थिक कष्टों से गुजर रहे थे, फिर भी लेखक के घर में पहले की ही तरह प्रतिदिन पत्र-पत्रिकाएँ आती रहती थीं। इन पत्र-पत्रिकाओं में ‘आर्यमित्र साप्ताहिक’, ‘वेदोदम’, ‘सरस्वती’, ‘गृहिणी’ थी और साथ में दो बाल पत्रिकाएँ खास तौर पर मेरे लिए ‘बालसखा’ और ‘चमचम’ आती थी। लेखक के घर में बहुत सारी पुस्तकें थीं, परन्तु उनकी प्रिय पुस्तक थी स्वामी दयानंद जी की एक जीवनी, जो बहुत ही मनोरंजक शैली में लिखी हुई थी, अनेक चित्रों से सजी हुई।

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         लेखक की माँ लेखक को स्कूल की पढ़ाई करने पर ज्यादा जोर दिया करती थी, क्योंकि लेखक की माँ को यह चिंता लगी रहतीं थी कि उनका लड़का हमेशा पत्र-पत्रिकाओं को ही पढ़ता रहता है, कक्षा की किताबों को नहीं पढ़ेगा तो कक्षा में पास कैसे होगा! लेखक स्वामी दयानन्द की जीवनी पढ़ा करते थे जिसके कारण उनकी माँ को हमेशा यह डर बना रहता था कि लेखक कहीं खुद साधु बनकर घर से भाग न जाए।

          लेखक कहते है कि जिस दिन उन्हें स्कूल में भर्ती कराया गया उसी दिन शाम को लेखक के पिता ने लेखक की उँगली पकड़कर लेखक को घुमाने लेकर चले गए। घूमाते समय लेखक को लोकनाथ की एक दुकान पर ताजा अनार का शरबत मिट्टी के बर्तन में पिलाया और लेखक के सिर पर हाथ रखकर बोले कि लेखक उनसे वायदा करे कि वे अपने पाठ्यक्रम की सभी किताबें भी उतना ही मन लगाकर पढ़ेगा जितना की लेखक पत्रिकाओं को पढ़ता है और वह अपनी माँ की चिंता को भी दूर करेगा। लेखक कहते है कि यह सब उनके पिता जी का ही आशीर्वाद था जिसके कारण लेखक कठिन मेहनत करके तीसरी और चौथी कक्षा में अच्छे नंबर लाए और पाँचवीं कक्षा में तो लेखक प्रथम आए। लेखक के इसी मेहनत को देखकर लेखक की माँ की आखों में आँसू भर गए और उन्होनें लेखक को गले लगा लिया। लेखक के पिता केवल मुस्कुराते रहे, वे लेखक को कुछ बोले नहीं क्योंकि लेखक को अंग्रेजी विषय में सबसे ज्यादा नंबर मिले थे, इसी कारण लेखक को स्कूल से इनाम में दो अंग्रेजी की किताबें प्राप्त हुई। उनमें से एक किताब में पक्षियों की जातियों, उनकी बोलियों, उनकी आदतों की जानकारी मिलती है। दूसरी किताब थी ‘ट्रस्टी द रग’ जिसमें पानी के जहाजों की कथाएँ थीं। उसमें यह लिखा था कि जहाज कितने प्रकार के होते हैं, उसमें कौन-कौन-सा माल लादकर ले जाया जाता है या ले आया जाता है, जहाजों पर रहने वाले नाविकों की जिंदगी कैसी होती है।

            इन दो किताबों ने लेखक के लिए एक नयी दुनिया के द्वार खोल दिये। उस दुनिया में पक्षियों से भरा आकाश और रहस्यों से भरा समुद्र था। लेखक के पिता ने उनकी अलमारी के एक भाग से अपने सामानों को हटाकर जगह बनाई और उस खाने में दोनों किताबों को रख दिया। उन्होंने लेखक से कहा कि आज से यह खाना तुम्हारी अपनी किताबों का है। अब यही तुम्हारी खुद की लाइब्रेरी है।

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          यहीं से लेखक की लाइब्रेरी शुरूआत हुई जो आज बढ़ते-बढ़ते एक बहुत बड़े कमरे में बदल गई। लेखक बच्चे से किशोर अवस्था, स्कूल, कॉलेज , युनिवर्सिटी, डॉक्टरेट हासिल की, यूनिवर्सिटी में बच्चों को पढ़ाये, पढ़ाना छोड़कर इलाहाबाद से बंबई गए , वहाँ लेखों को अच्छी तरह से पूरा करने का काम किये। अपनी लाइब्रेरी का विस्तार करते गये।

          लेखक को किताबें पढ़ने का शौक तो था पर किताबें इकट्ठी करने का पागलपन कैसे सवार हुआ? यह भी लेखक अपने बचपन के एक अनुभव में बताते है। इलाहाबाद में विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी के साथ अनेक कॉलेज की लाइब्रेरियाँ तो हैं ही, इसके साथ ही इलाहाबाद के लगभग हर मुहल्ले में एक अलग लाइब्रेरी है। इलाहाबाद में हाईकोर्ट है, अतः वकीलों की अपनी अलग से लाइब्रेरियाँ हैं, अध्यापकों की अपनी अलग से लाइब्रेरियाँ हैं। उन सभी लाइब्रेरियों को देख कर लेखक भी सोचा करते थे कि क्या उसकी भी कभी वैसी लाइब्रेरी होगी? लेखक के मुहल्ले में एक लाइब्रेरी थी जिसका नाम ‘हरि भवन’ था। लेखक स्कूल से छुटी होते ही लाइब्रेरी में चले जाते। मुहल्ले के उस छोटे-से ‘हरि भवन’ में खूब सारे उपन्यास थे।

           जब शुक्ल जी जो उस लाइब्रेरी के लाइब्रेरियन थे वे लेखक से कहते कि अब उठ जाओ बच्चे, पुस्तकालय बंद करना है, तब लेखक बिना इच्छा के ही वहाँ से उठ जाते थे। लेखक के पिता की मृत्यु के पश्चात लेखक के परिवार पर आर्थिक स्तिथि का संकट बढ़ गया था जिसके कारण फीस जुटाना तक मुश्किल हो गया था। किताबें खरीदना भी संभव नहीं था।

          एक ट्रस्ट की तरफ से लेखक को कुछ रुपये मिले। लेखक उनसे ‘सेकंड-हैंड’ प्रमुख पाठ्यपुस्तकें खरीदते, बाकी अपने सहपाठियों से लेकर पढ़ते और नोट्स बना लेते। उस साल लेखक अपनी माध्यमिक शिक्षा की परीक्षा को पास किये। पुरानी पाठ्यपुस्तकें बेचकर बी.ए. की पाठ्यपुस्तकें लेने के लिए एक सेकंड-हैंड बुकशाॅप पर गये। सारी पाठ्यपुस्तकें खरीदकर भी दो रुपये बच गए थे। लेखक ने देखा की सामने के सिनेमाघर में न्यू थिएटर्स वाला ‘देवदास’ लगा था। उन समय उस फिल्म की बहुत चर्चा हो रही थी। परन्तु लेखक की माँ को सिनेमा देखना बिल्कुल भी पसंद नहीं था। लेखक माँ से कहते है कि किताबें बेचकर दो रुपये लेखक के पास बचे हैं। वे दो रुपये लेकर माँ की सहमति से लेखक फ़िल्म देखने गया। पहला शो खत्म होने में अभी समय था, पास में लेखक की जन पहचान की किताब की दुकान थी। अचानक लेखक को देवदास नाम की एक पुस्तक दिखी। जिसके लेखक शरत्चंद्र चट्टोपाध्याय हैं। उस किताब का मूल्य केवल एक रुपया था। लेखक उसी दुकान पर अपनी पुरानी किताबें बेचता है। लेखक उसका पुराना ग्राहक है तो वह लेखक से कोई कमीशन नहीं लेगा। वह केवल दस आने में वह किताब लेखक को दे देगा।

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           लेखक सोचते है कि इस डेढ़ रुपये में पिक्चर देख कर क्या होगा? दस आने में ‘देवदास’ की किताब ही खरीद लेते है फिर घर लौट कर वह किताब अपनी माँ को दिखाई तो लेखक की माँ के आँखों में आँसू आ गए। लेखक को यह नहीं मालूम था कि वह आँसू खुशी के थे या गम के। वह लेखक के अपने पैसों से खरीदी, अपनी निजी लाइब्रेरी की पहली किताब थी। जब लेखक का ऑपरेशन सफल हुआ तब लेखक के पास एक मराठी कवि विंदा करंदीकर उस दिन मिलने आये थे। उन्होंने लेखक से कहा कि भारती, ये सैकड़ों महापुरुष जो पुस्तक-रूप में तुम्हारे चारों ओर उपस्थित हैं, इन्हीं के आशीर्वाद से तुम बचे हो। इन्होंने तुम्हें पुनः जीवन दिया है। लेखक ने मन-ही-मन विंदा को, महापुरुषों को सभी को प्रणाम किया। लेखक को मालूम था कि उसके द्वारा इकठ्ठी की गई सभी पुस्तकों में उनके प्राण बसते है जिस प्रकार तोते में राजा के प्राण बसते थे।

मेरा छोटा सा निजी पुस्तकालय प्रश्न-उत्तर | Mera Chota Sa Niji Pustakalaya Question Answer

  1. लेखक का ऑपरेशन करने से सर्जन क्यों हिचक रहे थे?

उत्तर- Read More

          इस पोस्ट के माध्यम से हम संचयन भाग-1 के कक्षा-9 का पाठ-4 (NCERT Solutions for Class-9 Hindi Sanchayan Bhag-1 Chapter-4) मेरा छोटा सा निजी पुस्तकालय पाठ कासारांश (Mera Chota Sa Niji Pustakalaya Summary ) के बारे में जाने जो कि धर्मवीर भारती (Dharamvir Bharati)  द्वारा लिखित हैं । उम्मीद करती हूँ कि आपको हमारा यह पोस्ट पसंद आया होगा। पोस्ट अच्छा लगा तो इसे अपने दोस्तों के साथ शेयर करना न भूले। किसी भी तरह का प्रश्न हो तो आप हमसे कमेन्ट बॉक्स में पूछ सकतें हैं। साथ ही हमारे Blogs को Follow करे जिससे आपको हमारे हर नए पोस्ट कि Notification मिलते रहे।

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कृतिका भाग-1 ( गद्य खंड )
सारांश  प्रश्न-उत्तर 
अध्याय- 1 इस जल प्रलय में  प्रश्न-उत्तर
अध्याय- 2 मेरे संग की औरतें प्रश्न-उत्तर
अध्याय- 3 रीढ़ की हड्डी प्रश्न-उत्तर
अध्याय- 4 माटी वाली प्रश्न-उत्तर
अध्याय- 5 किस तरह आखिरकार  मैं हिंदी में आया प्रश्न-उत्तर

 

क्षितिज भाग -1 ( गद्य खंड )

  सारांश  प्रश्न-उत्तर 
अध्याय- दो बैलों की कथा प्रश्न -उत्तर
अध्याय- 2 ल्हासा की ओर प्रश्न -उत्तर
अध्याय- 3 उपभोक्तावाद की संस्कृति  प्रश्न -उत्तर
अध्याय- 4 साँवले सपनों की याद  प्रश्न -उत्तर
अध्याय- 5 नाना साहब की पुत्री देवी मैना को भस्म कर दिया गया प्रश्न -उत्तर
अध्याय- 6 प्रेमचंद के फटे जूते प्रश्न-उत्तर 
अध्याय- 7 मेरे बचपन के दिन प्रश्न-उत्तर 
अध्याय- 8 एक कुत्ता और एक मैना
 
काव्य खंड
भावार्थ  प्रश्न-उत्तर 
अध्याय-   9 कबीर दास की साखियाँ प्रश्न-उत्तर 
अध्याय- 10  वाख  प्रश्न उत्तर
अध्याय- 11 सवैये प्रश्न-उत्तर

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