NCERT Solutions for Class 10 Hindi: माता का आँचल पाठ का सारांश

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आज हम आप लोगों को कृतिका भाग-2 के कक्षा-10  का पाठ-1 (NCERT Solutions for Class 10 Hindi Chapter 1) के माता का आँचल पाठ का सारांश  (Mata ka Anchal Summary) के बारे में बताने जा रहे है जो कि शिवपूजन सहाय (Shivpujan Sahay) द्वारा लिखित है। इसके अतिरिक्त यदि आपको और भी NCERT हिन्दी से सम्बन्धित पोस्ट चाहिए तो आप हमारे website के Top Menu में जाकर प्राप्त कर सकते हैं।       

NCERT Solutions for Class 10 Hindi Chapter 1 Mata ka Anchal Summary

          इस पाठ के सार में लेखक ने शैशव-काल के शैशवीय क्रिया-कलापों को रेखांकित किया है, जिसमें माता-पिता के स्नेह, शिशु मण्डली द्वारा मिल-जुलकर खेले जाने वाले खेलों को उद्धृत किया है। लेखक ने स्पष्ट किया है कि शिशु का पिता उसके साथ भले ही अधिक समय बीतता हो, दोनों भले ही एक-दूसरे के साथ अत्यधिक स्नेह करते हों, किन्तु आपदाओं में माँ के अंचल में ही शिशु को शरण मिलती है। ऐसे समय में पिता से अधिक माता की गोद प्रिय और रक्षा करने में समर्थ प्रतीत होती है।

          लेखक बचपन से ही अपने पिता जी के साथ अधिक रहते थे। अपनी माता जी के साथ उनका दूध पीने तक का ही सम्बन्ध था। जब पिताजी नहा-धोकर पूजा करने बैठते, तब साथ ही लेखक को भी नहला-धुलाकर अपने साथ पूजा में बैठा लेते थे। लेखक के माथे पर भभूत का तिलक लगा देते। उनके सिर पर तो लम्बी-लम्बी जटाएँ तो थीं, उस पर भभूत का तिलक लगा देने से लेखक बम-भोला बन जाया करते थे। पिताजी लेखक को प्यार से भोलानाथ कहकर पुकारा करते थे। जबकि मेरा नाम तारकेश्वर नाथ था। मैं (लेखक) पिताजी को बाबूजी और माँ को मइया कहकर पुकारता था। पिताजी रामायण का पाठ करते थे तो मैं उनके पास बैठा आइने में अपना मुँह निहारा करता था। पिताजी के देखने पर शर्माकर आइना को नीचे रख देता और यह देखकर पिताजी मुस्करा देते थे।

          पिताजी पूजा पाठ के बाद अपनी एक ‘रामनामा बही’ में राम-राम लिखतेथे। इसके बाद कागज के छोटे-छोटे टुकड़ों पर राम-नाम लिखकर और उन्हें आटे की गोलियों में लपेट देते थे। इसके बाद गंगा जी के तट पर जाकर आटे की एक-एक गोली फेंककर मछलियों को खिलाते थे। उस समय मैं उनके कन्धे पर बैठा होता था। पिताजी की गोली फेंक मैं हँसा करता था। गंगा से जब लौटते तो पिताजी रास्ते में झुके पेड़ों की डालों पर बैठाकर (लेखक को) झूला झुलाते थे। कभी-कभी हमसे कुश्ती लड़ते थे और खुद नीचे गिर जाते थे और मैं उनकी छाती पर चढ़कर उनकी मँछे उखाड़ने लगता था। मूंछे छुड़ाकर हँसते हुए चूम लेते थे। मुझसे खट्टा-मीठा चुम्मा माँगते थे। मैं उनके सामने अपने गाल कर देता था। एक खट्टा चुम्मा दूसरा मीठा चुम्मा लेते तो मूँछे गड़ा देते थे। मैं झुंझला पड़ता था और पिताजी बनावटी रोना रोते थे और मैं खिल-खिलाकर हँसने लग जाता था।

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          पिताजी गोरस और भात को फूल के कटोरे में सानकर खिलाते थे। माँ और खिलाने की हट करती थी। माँ पिताजी से कहती कि बच्चे को खिलाने का ढंग मर्द नहीं जानते। चार-चार दाने का कौर देने से बच्चा समझता है कि बहुत खा लिया है। बच्चे को भर-मुँह खिलाना चाहिए। माँ खुद खिलाने लगती और कहती कि महतारी के हाथ से खाने पर बच्चों का पेट भरता है। माता खिलाती और कहती कि यह तोता के नाम का कौर है और यह कबूतर के नाम का कौर है ऐसे खूब खिला देती। तब पिताजी खेलने के लिए कहते। हम खेलने निकल जाते।

          कभी माँ अचानक पकड़ लेती और मेरे सिर पर कड़वा तेल डालकर सिर की मालिश करती। मैं छटपटाता और रोने लगता, पिताजी बिगड़ उठते किन्तु माँ उबटकर ही छोड़ती थी। फिर माथे पर काजल की बिन्दी लगाकर चोटी गूंथती, चोटी में फूलदार लट्ट बाँधती और रंगीन कुरता-टोपी पहनाकर कन्हैया बनाकर तैयार करती और मैं सिसकता रहता पिताजी गोद में उठाकर बाहर ले आते। जैसे ही बाहर आते और इन्तजार करते हुए बालकों के झुण्ड को देखते ही मैं सिसकना भूलकर पिताजी की गोद से उतरकर बालकों के झुण्ड में मिलकर खेलने लग जाता और तरह-तरह के नाटक करने लग जाता था। वहीं चबूतरे के एक कोने में सब खेल खेलते। पिताजी की नहाने वाली चौकी को लेकर उस पर सरकण्डे के खम्भे बनाते, कागज का टैण्ट लगाते, मिठाइयों की दुकान लगाते, मिट्टी के ढेलों के लड्डू बनाते, पत्तों की पूड़ी कचौड़ी, गीली मिट्टी की जलेबी, फूटे घड़ों के टुकड़ों के बताशे बनाते और दुकान सजाते। उन्हीं ठीकरों और जस्ते के छोटे-छोटे टुकड़ों के पैसे बनाते। हम बच्चों में से ही खरीददार होते और हममें से ही दुकानदार होते थे। थोड़ी देर बाद मिठाई की दुकान बन्द कर घरौंदा बनाते। रेत की मेड़ ही दीवार बनती, तिनकों का छप्पर, दातून के खम्भे, दियासलाई की पेटियों की किवाड़, पानी का घी, बालू की चीनी, ऐसे ही घड़ों के टुकड़ों का प्रयोग कर ज्योनार तैयार करते। हम ही बच्चे पंगत में बैठते। पंगत में धीरे से आकर बाबू जी बैठ जाते थे। उनको बैठते देखते ही हम बच्चे घरौंदा बिगाड़कर भाग उठते थे। वह भी हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाते थे और पूछते-फिर कब होगा भोज भोलानाथ?

          कभी बच्चे बारात निकालते। कनस्तरों का तम्बूरा बजता आम की उगी हुई गुठली को घिसकर शहनाई बनती। हममें से कोई दूल्हा, समधी आदि बनते थे। बारात चबूतरा के एक कोने से दूसरे कोने तक जाकर लौट आती थी। जिस कोने पर बारात जाती थी उस कोने को आम के पत्तों और केलों के पत्तों से सजाया जाता था। लाल कपड़े से ढककर एक बनी पालकी में दुलहिन बैठा दी जाती थी। बारात के लौटने पर पिताजी पालकी के कपड़े को ऊपर कर देखते थे तो हम हँसकर भाग जाते थे।

          थोड़ी देर में बच्चों की मण्डली खेती करने के लिए जुटती। बस चबूतरे के एक कोने पर घिरनी गड़ जाती और नीचे की गली कुँआ बन जाती। मूंज की पतली रस्सी बनाकर घिरनी पर चढ़ा, चुक्कड़ बाँध लटका दिया जाता। दो लड़के बैल बनते, पानी खींचने लग जाते। चबूतरा खेत बनता, कंकड़ बीज बनते। मेहनत से खेत जोते-बोए जाते। फसल तैयार हुई, हाथों-हाथ काट लेते। उसे एक जगह रखकर पैरों से रौंदते, मिट्टी के बने कटोरे से उसे ओसाते। मिट्टी के बने दीओं के तराजू बनाकर, तौलकर राशि तैयार कर देते। बाबू जी पूछते-इस साल खेती कैसी रही भोलानाथ? हम सब राशि छोड़कर भाग उठते। इस तरह खेल खेलते देखकर बटोही भी रुक जाते थे।

          अगर किसी दूल्हे के आगे पालकी को देख लेते थे तो खूब जोर से चिल्लाते थे-‘रहरी में रहरी पुरान रहरी, डोला के कनिया हमार मेहरी।’ एक बार ऐसा कहने पर एक बूढ़े वर ने हम बच्चों को बहुत दूर तक खदेड़कर ढेलों से मारा था। उस खूसट-खब्बीस की सूरत लेखक को अब तक याद है। न जाने किस ससुर ने वैसा जमाई ढूँढ़ निकाला था। वैसी शक्ल का आदमी हमने कभी नहीं देखा।

          एक बार जोर की आँधी आई और हम सब आम के बाग की ओर दौड़ चले। आकाश काले बादलों से ढक गया। मेघ गरजने लगे, बिजली कौंधने लगी, ठण्डी हवा सन-सनाने लगी, पेड़ झूमने लगे और जमीन को छूने लगे।

हम बच्चे चिल्ला उठे –

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एक पइसा की लाई

बाज़ार में छितराई

बरखा उधरे बिलाई।

          लेकिन वर्षा न रुकी, मूसलाधार वर्षा होने लगी। हम पेड़ों की जड़ से सट गए। थोड़ी देर में वर्षा थम गई। वर्षा थमते ही बाग में बिच्छू नजर आए। हम डरकर भाग चले। हममें एक बालक बैजू ढीठ था। हम भागे जा रहे थे। संयोग से रास्ते में मूसन तिवारी मिल गए। बैजू ने चिढ़ाया और कहा –

          बूढ़वा बेईमान माँगे करेला का चोखा।

          हम लोगों ने भी उसी के सुर में सुर मिलाते हुए चिल्लाना शुरू कर दिया। मूसन तिवारी हम लोगों के पीछे दौड़े और हम अपने-अपने घर की ओर भाग चले। हमारे न मिलने पर तिवारी पाठशाला गए और वहाँ से गुरु जी ने हमें पकड़ने के लिए चार लड़कों को भेजा। जैसे ही हम घर पहुँचे, वैसे ही चार लड़के आ धमके। बैजू तो भाग गया और मैं पकड़ा गया, गुरुजी ने मेरी खूब खबर ली। बाबू जी को जैसे ही पता चला वे पाठशाला दौड़े चले आए, मुझे गोद में उठाया, पुचकारा और मैंने रोते-रोते आँसुओं से बाबूजी का कन्धा तर कर दिया। वे गुरुजी से प्रार्थना कर मुझे घर ले चले और रास्ते में साथी लड़कों का झुण्ड मिला। वे जोर से नाच और गा रहे थे –

माई पकाई गरर गरर पूआ,

हम खाइब पूआ

ना खेलब जुआ।

          उन्हें देखकर हम रोना-धोना भूल गए, बाबूजी की गोद से उतर गए और लड़कों की मण्डली में मिल गए और एक साथ मकई के खेत में घुस गए और चिड़िया उड़ाने लग गए। एक भी चिड़िया हाथ नहीं आई। हमें चिड़िया उड़ाते देख गाँव के आदमी हँसते हुए कहने लगे-

चिड़िया की जान जाए

लड़कों का खिलौना।

          फिर कहा-‘सचमुच लड़के और बन्दर पराई पीर नहीं समझते।

          एक बार टीले पर चूहे के बिल को देखकर हम बिल में पानी उलीचने लगे। उससे चूहा तो निकला नहीं; साँप निकल आया। हम डरे और रोते-चिल्लाते भाग चले। जहाँ-तहाँ गिरे। सारा शरीर लहू-लुहान हो गया पैरों के तलवे काँटों से छलनी हो गए। मैं घर की ओर भागा। बाबूजी ओसारे में हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे, उन्होंने बहुत पुकारा, पर मैंने माँ की गोद में शरण ली। मैं उनके आँचल में छिप गया। माँ सब काम छोड़कर रो पड़ी और भय का कारण पूछने लगी। कभी अंग भरकर दबाती और कभी मेरे अंगों को अपने आँचल से पोंछकर चूम लेती बड़े संकट में पड़ गई। झटपट हल्दी पीसकर लगाई। मैं साँ-साँ करते हुए माँ के आँचल में छिपा जा रहा था। घर में कुहराम मच गया। सारा शरीर काँप रहा था। रोंगटे खड़े हो गए थे। आँखें खोलना चाहते थे पर आँखें खुल नहीं रही थीं। मेरे काँपते हुए होठों को देखकर माँ रोती और बड़े लाड़ से गले लगाती।

          इसी बीच बाबू जी दौड़े आए। माँ की गोद से मुझे लेने लगे। पर मैंने माँ के आँचल की प्रेम और शान्ति के चँदोवे की छाया न छोड़ी।

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