लोकमान्य के चरणों में निबंध का सारांश । Lokmanya Ke Charno Mein

लोकमान्य के चरणों में निबंध का सारांश । Lokmanya Ke Charno Mein

लोकमान्य के चरणों में निबंध का सारांश । Lokmanya Ke Charno Mein

लोकमान्य के चरणों में निबंध का सारांश । Lokmanya Ke Charno Mein

          लोकमान्य के चरणों में (Lokmanya Ke Charno Mein)  शीर्षक लेख में विनोबा भावे (Vinoba Bhave) ने उनकी पुण्यतिथि के अवसर पर उनके चरणों में भावनाओं की श्रद्धांजलि अर्पित की है और उसका विवेचन किया है कि लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की लोकमान्यता का, उनकी विश्व व्याप्त प्रतिष्ठा का क्या रहस्य है ?

          सन् 1920 ई. में लोकमान्य तिलक बंबई में थे। उन्हें विनोबा भावे ने वहाँ बीमारी की दशा में देखा। डॉक्टर ने कहा था कि वे खतरे से बाहर हैं, तभी विनोबा भावे दौड़कर साबरमती के लिए रवाना हुए थे। वे आधा मार्ग ही जा पाये थे कि तिलक की मृत्यु का समाचार उन्हें मिला। उन्हें गहरा धक्का लगा, जान पड़ा कि अपना सगा कुटुंबी संसार से उठ गया।

          विनोबा भावे कहते हैं कि वे लोकमान्य तिलक का स्मरण करते ही गद्गद् कण, भाव-विभोर एवं स्फूर्तिपूर्ण हो जाते हैं, जिनका श्रेय लोकमान्य के महामहिम व्यक्तित्व को है, न कि स्वयं उन्हें ।

          लोकमान्य तिलक महाराष्ट्र के ब्राह्मण थे, परंतु वे भारत के सभी राज्यों एवं सभी जातियों के लोगों की दृष्टि में पूज्य ठहरे, इसके कारण विचार करते हुए विनोबा भावे कहते हैं कि इसके मूल में तिलक का गुण भी है और हमारे पूर्वजों की कमाई का भी गुण है।

          तिलक का गुण था उनमें राष्ट्रीयता की भावना। वे चाहे जिस प्रांत में, जिस जाति में जन्मे, पर जो कुछ भी उन्होंने किया वह समग्र भारत देश के हित को ध्यान में रखकर किया।

          तिलक का कहना था-“हिन्दुस्तान के हित में मेरे महाराष्ट्र का हित है, इसीलिए पुणे का हित है और पुणे में रहने वाले मेरे परिवार का हित है और परिवार में रहने वाले मेरा भी हित है।”

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          सच्ची सेवा जो करना चाहता है वह करेगा तो किसी एक ही सीमित स्थान पर उसकी सेवा का, उसके सेव्य का क्षेत्र व्यापक और असीमित होगा। यह लोकमान्य तिलक का मत था।

          भगवान सेवा का परिणाम नहीं, गुण देखता है। किसने कितनी सेवा की, यह न देखकर उसकी दृष्टि इस पर पड़ती है कि किसने कैसी सेवा की । बड़ी लंबी-चौड़ी सेवा यदि संकीर्ण भावना से है तो वह महान नहीं है। छोटी-सी सेवा भी यदि व्यापक भावना पर आधारित है तो उसे बड़ी सेवा कहा जायेगा।

          मैं भारतीय हूँ। यह भावना तिलक में कूट-कूटकर भरी थी। भारत का ही नहीं, विश्व के किसी भी समाज के अहित को बचाए हुए ही ये अपने कर्तव्य-कर्म के पथ पर बढ़ते थे।

          बंगाल में आंदोलन हुआ तो उन्होंने उसकी सहायतार्थ महाराष्ट्र को खड़ा कर दिया। क्या बंगाल, क्या महाराष्ट्र, क्या अन्य प्रांत सभी उनकी दृष्टि में भारत के अभिन्न अंग थे। प्रत्येक के हित में भारत का हित और भारत के हित में प्रत्येक का हित वे समझते थे । उनकी दृष्टि सर्वराष्ट्रीय थी। यही उनकी लोकमान्यता का रहस्य है।

          इसका और कारण भी था जनता की विशेषता। तिलक के गुण के साथ जनता का गुण भी स्मरणीय है, क्योंकि वे अपने को जनता के चरणों की धूलि कहते थे। जनता के दोष-दौर्बल्य से अपने दोष-दौर्बल्य मानते थे। वे जनता से एकरूप हो गये थे। अत: विनोबा भावे के मतानुसार जनता के गुणों का स्मरण तिलक के गुणों का स्मरण ही है।

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