Konark Khandkavya Summary | कोणार्क खंडकाव्य कथा-सार रामेश्वर दयाल दुबे
आज हम आप लोगों को कोणार्क खंडकाव्य (Konark Khandkavya Summary) के कथा-सार के बारे में बताने जा रहे हैं जो कि रामेश्वर दयाल दुबे (Rameshwar Dayal Dubey) द्वारा लिखित है। इसके अतिरिक्त यदि आपको और भी हिन्दी से सम्बन्धित पोस्ट चाहिए तो आप हमारे website के Top Menu में जाकर प्राप्त कर सकते है।
कोणार्क खंडकाव्य ( Konark Khandkavya )
कथा-सार
उत्कल राज्य के राजा नरसिंह देव की माता का कई लम्बे वर्षों तक कोई सन्तान नहीं हुई। पुत्र-प्राप्ति की अभिलाषा से रानी ने व्रत, दान, आदि कई प्रकार के धार्मिक तथा शुभ कर्म किये, लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। संयोग से हिमलायवासी एक साधु रानी को सूर्य-व्रत करने की सलाह दी। रानी ने साधु की सलाह मानकर नियमपूर्वक सूर्य-व्रत रखने लगी। रानी की सच्ची प्रार्थना सफल हुई। भगवान भास्कर के प्रसाद से रानी ने एक पुत्र का जन्म दिया। वही पुत्र उत्कल प्रभु नरसिंहदेव ही था।
रानी पुत्र जन्म के बाद भी सूर्य भगवान की पूजा करती रही। उनके मन में इच्छा थी कि वह सूर्य का भव्य-सा मन्दिर ( Sun Temple ) बनवाये। किन्तु उनके जीवन काल में उनका यह इच्छा पूरी न हो सकी और स्वर्गवास हो गया। राजा नरसिंहदेव ने अपनी माता की अंतिम इच्छा पूर्ण करने के विचार से सूर्य-मन्दिर ( Sun Temple ) बनवाने का निश्चय किया। उस समय प्रसिद्ध शिल्पकार विशु था। अत- उन्होंने अपना संकल्प सुनाकर महामंत्री को विशु के पास भेज जिया।
महामंत्री गाँव में चलकर महाशिल्पी विशु के घर पहुँचे और राजमाता की इच्छा पूर्ति के लिये सूर्य मन्दिर ( Sun Temple ) बनवाने के लिये विशु से प्रर्थना की। विशु मंत्री की बातों से प्रभावित हुआ। परन्तु उसका मन पत्नी-पुत्र की मोह-माया में लगा हुआ था। अतः वह किंकर्त्तव्य विमूढ़ हो गया। अंत में राजा की मातृभक्ति प्रेरित होकर सूर्य मन्दिर ( Sun Temple ) बनवाने का कार्य स्वीकार कर लिया।
बंगाल की खाड़ी में पद्म क्षेत्र नामक पवित्र स्थान पर समुद्र के किनारे मन्दिर निर्माण का कार्य प्रारंभ हो गया। विशु के निर्देश पर अनेक शिल्पी और मजदूर मन्दिर का निर्माण करने लगे।

कोणार्क (Konark) शिखर-मन्दिर शैली में रथ के रूप में बनाया गया है। मुख्य मन्दिर ‘विमान’ में जो पीछे की ओर सबसे ऊँचा होता है और जिसे ‘बड़देवल’ भी कहते हैं, देवता की मूर्ति स्थापित की जाती है। ‘बड़देवल’ के सामने दूसरा कक्ष रहता है, जिसे ‘जगमोहन’ कहते हैं, यक्षों के बैठने के लिये यह स्थान रहा करता है। । यह मन्दिर छोटे-छोटे प्रस्तर-खंडों से नहीं बनाया गया है, वरन् उसकी रचना विशाल शिलाओं द्वारा हुई है। मन्दिर के आस पास दूर दूर तक कहीं कोई पहाड़ भी नहीं है। सहज ही प्रश्न उठता है कि ये विशाल शिलायें कहाँ से और किस प्रकार लायी गई होंगी। किस उपाय से एक के ऊपर एक ठेठ ऊँचाई तक चढ़ाई गई होंगी। मन्दिर का विशालकाय रूप और कला-कृत्तियों का सौन्दर्य देखकर दर्शक चकित रह जाता है।
मन्दिर का मुख्य द्वार पूर्व की ओर है। कहते हैं कि मन्दिर की रचना कुछ इस प्रकार की गई थी कि मन्दिर के सामने लहराते अनन्त सागर अन्तराल से निकलते हुए बाल-रवि की प्रथम किरण कोणार्क (Konark) मन्दिर के अन्दर रखी हुई भगवान सूर्यदेव का प्रतिमा का अभिषेक किया करती थी। मन्दिर का उत्तर द्वार ‘हाथी द्वार’ और दक्षिण द्वार ‘अश्व-द्वार’ कहलाता है। वहाँ क्रमशः विशालकाय हाथी और अश्व खड़े है।
मुख्य द्वार के सामने ‘अरुण-स्तम्भ’ है। इसके पास ही पूर्व की ओर ‘नाट्य मन्दिर’ है। नाट्य मन्दिर भी ‘विमान’ की भाँती नष्ट प्राय है। अब केवल खंबे ही शेष रह गये हैं। इन खंभों की दीवारों पर इंच भर ऐसा स्थान नहीं है, जहाँ की सुन्दर मूत्तियाँ दर्शकों को आकर्षित न करती हो।
कोणार्क (Konark) मन्दिर अपने शिल्प की सर्वोत्कष्टता के कारण जितना आकर्षक है, उतना ही अधिक अपने निर्माण के वेदनापूर्ण इतिहास के कारण मर्मस्पर्शी है। मन्दिर के निर्माता महाशिल्पी विशु और उसके होनहार पुत्र धर्मपद के साथ जो दुःखान्त घटना घटी, उसने सदैव के लिये मन्दिर और उसके परिवेश को आँसुओं के सिक्त कर दिया। यह करुण प्रसंग हमारी अनुभूतियों को अत्याधिक अभिभूत कर देता है।
महाशिल्पी विशु अपने कुशल शिल्पी दल के साथ मन्दिर रचना में संलग्न था। बारह वर्ष के अथक प्रयत्न और परिश्रम से मन्दिर लगभग पूर्ण हुआ, परन्तु निर्माण में इसकी त्रुटि के रह जाने कारण कलश अम्ल के ऊपर ठीक से बिठाया नहीं जा रहा था। इस प्रकार मन्दिर के पूर्ण होने में विलम्ब हो रहा था। राजा नरसिंहदेव तो चिन्तित हो ही रहे थे किन्तु उनका महामंत्री तो अपना धैर्य ही खो रहा था। राजा की अनुपस्थिति में महामंत्री किसी षडयन्त्र की रचना में लीन था। उसके राज शिल्पीयों के सम्मुख विकट संकट उपस्थित कर दिया। मन्दिर निश्चित अवधि के भीतर पूर्ण न हो सका। राजा की ओर से यह घोषणा प्रसारित की गई कि जो कलाकार कोणार्क ( Konark Sun Temple ) के सूर्य-मन्दिर का कलश ठीक रख देगा, उसे ‘महाशिल्पी’ का पद तो मिलेगा ही मुहँमाँगा पुरस्कार भी दिया जायेगा।
यह घोषणा उस उपत्यका तक भी पहुंची जहाँ महाशिल्पी विशु की विरह विधुरा पत्नी ‘चन्द्रलेखा’ और यौवन की देहरी पर पहुँचे वाला उसका पुत्र रहा करता था। धर्मपद एक अद्वितीय होनहार कलाकार था। शिल्पकला में वह दीक्षित हो चुका था। माँ से आज्ञा प्राप्त कर वह चल दिया और वहाँ पहुँचा, जहाँ भय, आकांशा और दुश्चिन्ता के काले मेघ छाये हुए थे। सभी शिल्पी दुखी थे।
धर्मपद ने अपने पिता महाशिल्पी विशु के दर्शन किये, किन्तु किसी भावनावश उसके अपने अपरिचित ही रखना पसन्द किया। धर्मपद ने घूम-घूम कर मन्दिर की रचना देखी, उसे सराहा और उस पर मुग्ध हुआ। साथ ही उस समस्या पर गंभीरता से विचार किया कि क्यों वह कलश मन्दिर के अम्ल पर नहीं ठहरता है ? निर्माण की त्रुटि को उसने समझ लिया और उसे सुधारने में वह दत्तचित हो गया। दो दिन के पश्चात वह उस प्रस्तर-कलश को अम्ल पर रखने में सफल हुआ।
धर्मपद और महाशिल्पी की प्रसन्नता की कोई सीमा न थी, किन्तु जितने भी अन्य शिल्पी थे, वे हतप्रभ हो गये। उन्हें लग रहा था मानो उनकी अखंड साधना के फल को , उनकी कीर्ति को लुटने के लिये ही इस बालक ‘धर्मपद’ का आगमन हुआ है। वे सब द्वेषाग्नि से जल उठे। उन्हें शांत करने के लिये महाशिल्पी विशु ने प्रयत्न नहीं किया, किन्तु सब व्यर्थ । नवयुवक कलाकार ने भी अपनी विनम्र वाणी से उन्हें समझाया कि मैं कीर्ति लुटने नहीं आया हूँ, किन्तु यह भी व्यर्थ हुआ। वे सब तो युवक कलाकार का बध करने पर तुले हुए थे। महाशिल्पी विशु यह कैसे सहन कर सकता था। उत्तेजित होने कारण शिल्पी विशु संज्ञाहीन हो गया। धर्मपद ने विशु के विभिन्न साथी राजीव को कुछ संकेत दिया कि वह कौन है। अन्त में सब शिल्पीयों को सन्तोष देने के लिये वह रात्रि के उस घोर अन्धकार में सदा सदा के लिये विलीन हो गया।
विशु को जब होश आया, युवक धर्मपद रात्रि के उस अन्धकार में दूर, बहुत दूर चला गया था। राजीव ने महाशिल्पी विशु को बताया कि वह युवक और कोई नहीं उसका ही पुत्र ‘धर्मपद’ था, जिसे वह बारह वर्ष पहले एक बालक के रूप में छोड़ आया था।
आहत पिता की करुणावस्था का सहज ही अनुमान किया जा सकता है। मर्माहत विशु रात्रि के उस घोर अन्धकार में पुत्र को खोजने के लिये चल देता है और वह भी सदा-सदा के लिये विलीन हो जाता है।
कोणार्क मन्दिर के आसपास का सारा वातावरण मानो इसी करुण कथा से आज भी परिव्याप्त है। परिवेश में व्याप्त यही अनन्त करुण इस खंड काव्य में सिमट कर आ बैठी है।
ऐसा प्रतीत होता है कि वास्तु कला एवं मूर्ति-शिल्प का गौरव-प्रतीक कोणार्क युगों से अपने अन्तर में इस अकथ भार को समेटे प्रतिवर्ष दर्शनार्थ आनेवाले लक्ष लक्ष यात्रियों में किसी संवेदनशील भावुक हृदय की बाट जोह रहा था। इस खंड काव्य के कवि ने प्रस्तरों की आत्मा से तादात्म स्थापित कर प्रथम बार उनके इस मूक हाहाकार को सुना और उस अमानवीय सौन्दर्य छवि के अन्तस्तल में दबे अवसाद और कारुण्य को काव्य के सारस्व प्रवाह में अभिषिक्त कर रसोज्ज्वल बना दिया। दुबे जी की वाणी में प्रत्येक संवेदनशील हृदय की धड़कन मुखर हो उठी है।
इस पोस्ट के माध्यम से हम कोणार्क खंडकाव्य (Konark Khandkavya Summary) के कथा-सार के बारे में जाने, जो कि रामेश्वर दयाल दुबे (Rameshwar Dayal Dubey) द्वारा लिखित हैं। उम्मीद करती हूँ कि आपको हमारा यह पोस्ट पसंद आया होगा। पोस्ट अच्छा लगा तो इसे अपने दोस्तों के साथ शेयर करना न भूले। किसी भी तरह का प्रश्न हो तो आप हमसे कमेन्ट बॉक्स में पूछ सकतें हैं। साथ ही हमारे Blogs को Follow करे जिससे आपको हमारे हर नए पोस्ट कि Notification मिलते रहे।
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