Akashdeep By Jaishankar Prasad | आकाशदीप कहानी जयशंकर प्रसाद

Akashdeep By Jaishankar Prasad​ | आकाशदीप कहानी जयशंकर प्रसाद

Akashdeep By Jaishankar Prasad

जयशंकर प्रसाद जी का संक्षिप्त परिचय
नाम   महाकवि जयशंकर प्रसाद
जन्म 30 जनवरी 1889 ई०
मृत्यु 15 नवम्बर 1937 ई ०
जन्म स्थान काशी, उत्तर प्रदेश
पिता का नाम देवीप्रसाद शाहू
भाषा-शैली भावात्मक शैली, चित्रात्मक शैली, अलंकारिक शैली, संवाद शैली, वर्णनात्मक शैली
मुख्य रचनाएँ चित्रधारा, कामायनी, आँसू , लहर, झरना, एक घूँट, विशाख, अजातशत्रु , आकाशदीप, आँधी, ध्रुवस्वामिनी, तितली, और कंकाल

 

 

          आज हम आप लोगों को आकाशदीप ( Akashdeep ) कहानी जो कि जयशंकर प्रसाद द्वारा (Jaishankar Prasad) लिखित है, इस कहानी के सारांस के बारे में बताने जा रहे हैं। इसके अतिरिक्त यदि आपको और भी हिन्दी से सम्बन्धित पोस्ट चाहिए तो आप हमारे website के top Menu में जाकर प्राप्त कर सकते है।

 

Akashdeep​ Summary | आकाशदीप कहानी का सारांस

 

          चंपा एक क्षत्रिय बालिका थी। भारतवर्ष में जाह्नवी के तट पर चंपानगरी में उसका घर था। उसका पिता वणिक मणिभद्र के यहाँ नाव पर प्रहरी था। मणिभद्र भारत से बाहर जावा, सुमात्रा आदि द्वीपों से व्यापार करता था। चंपा के माता-पिता भी साथ जाते थे। माता की मृत्यु के उपरांत चंपा आठ वर्ष से पिता के नाव पर ही रहने लगी थी। एक बार बुद्धगुप्त ने अपने दस्यु दल सहित नाव लूटने के लिए आक्रमण किया। चंपा के पिता ने अपने प्राणों पर खेलकर अपने मालिक की रक्षा की किंतु वह स्वयं संघर्ष में मारा गया। मणिभद्र ने बुद्धगुप्त को बंदी बना लिया।

          पिता के मरने के बाद चंपा अकेली रह गई। निराश्रित चंपा को मणिभद्र अपनी काम-वासना का शिकार बनाना चाहता था। चंपा ने इसका विरोध किया फलस्वरूप चंपा को मणिभद्र ने बंदी बना लिया।

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          बुद्धगुप्त भारत का रहने वाला क्षत्रिय था। वह ताम्रलिप्ति का निवासी था। बहुत दिनों से हत्या-लूटमार करके जीवन व्यतीत करता था। मणिभद्र एक विशाल जलपोत में उसे किसी अपरिचित द्वीप में छोड़ने जा रहा था। रात का समय था। लहरों में जहाज उतरता जा रहा था। बुद्धगुप्त ने चंपा से मुक्त होने के लिए कहा। चंपा अपनी स्वीकृति देती है । दोनों एक-दूसरे का बंधन काटकर मुक्त हो जाते हैं। चंपा महानाविक की कटार चुपचाप लुढ़का कर खींच लेती है। रात्रि के अंधकार में दोनों हर्षातिरेक से एक-दूसरे का आलिंगन किया। सवेरा होने पर महानाविक ने उनको पुनः बंदी बनाने का प्रयत्न किया। बुद्धगुप्त और महानाविक में द्वन्द्व-युद्ध हुआ। मणिभद्र पहले ही मारा जा चुका था । महानाविक ने वरुण की शपथ लेकर क्षमा-याचना कर ली। पोत पर बुद्धगुप्त का अधिकार हो गया।

          चंपा और बुद्धगुप्त उस पोत को लेकर एक नये द्वीप पर पहुँचे, जिसका नाम बुद्धगुप्त ने चंपा के नाम पर ‘चंपा द्वीप’ रखा। बुद्धगुप्त व्यापार द्वारा समृद्धि प्राप्त करने लगा। उसने द्वीप के आदिवासियों पर अपना अधिकार भी जमा लिया। किंतु चंपा के हृदय में पितृघातक बुद्धगुप्त के प्रतिशोध की भावना जाग्रत है। वह अपने पास कटार छिपाए रखती है। कभी-कभी बुद्धगुप्त के प्रति उसके हृदय में प्रणय भी उमड़ता रहता है। बुद्धगुप्त ने चंपा के लिए एक शानदार महल बनवाया। चंपा को वह रानी कहता है। किंतु चंपा ने अभी तक उसके विवाह का प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया। वह अपने महल में बैठकर अभ्रक की मंजूषा में ‘आकाश दीप’ जलाती रहती है। बुद्धगुप्त को उसने बताया कि वह अपने मृत पिता को आकाश दीप दिखाती है, जिससे उसकी पथ भ्रष्ट आत्मा को मार्ग मिले। उसने कहा कि माँ भी इसी प्रकार दीप जलाकर अपने पति की प्रतीक्षा किया करती थी। बुद्धगुप्त ने चंपा की इच्छा समझकर चंपा द्वीप में एक विशाल प्रकाश स्तंभ बनवाया। उसके प्रकाश में कमरे में बैठकर दोनों प्रेमालाप करते।

          एक दिन चंपा अपनी सखी जया के साथ विहार कर रही थी। बुद्धगुप्त भी अपनी नाव लेकर पहुँच गया। चंपा उसकी नाव में आ गयी। दोनों जल विहार करते बहुत दूर तक निकल गए। चंपा के हृदय में प्रतिशोध की भावना समाप्त हो गयी, उसने छिपी कटार फेंक कर कहा कि अब मैं तुमसे प्रेम करती हूँ।

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          चंपा द्वीप स्तंभ आकाश दीप नियमित रूप से जलने लगी। बुद्धगुप्त से प्रेम करते हुए भी वह उसके विवाह बंधन में नहीं बँध पाती। बुद्धगुप्त ने अनुभव किया कि वह चंपा द्वीप में चंपा से विवाह किये बिना नहीं रह सकेगा। अतः वह भारत चलने की इच्छा प्रकट करता है। किंतु चंपा उस स्थान को छोड़कर जाने की अनिच्छा व्यक्त करती है।

          बुद्धगुप्त भारत लौट रहा है। चंपा आँखों में आँसू भरे हुए आकाश दीप जलाती हुई यह सब देखती है। उसकी जीवन साधना में व्यतीत होने लगा। वह नियमित रूप से आकाश दीप जलाकर प्रतीक्षा करती रही। उसकी मृत्यु के कुछ समय तक चंपा द्वीप के निवासी उसकी स्मृति में दीप जलाते और उत्सव विधि संपन्न करते रहे । अंत में काल के कठोर हाथों ने उस स्तंभ को भी धराशाही कर उसे इतिहास के पन्नों की वस्तु बना दिया।

जयशंकर प्रसाद जी का जीवन परिचय

            प्रसाद जी का जन्‍म काशी के एक सुप्रसिद्ध वैश्‍य परिवार में 30 जनवरी सन् 1889 ई. में हुआा था। काशी में इनका परिवार ‘सुँघनी साहू’ के नाम से प्रसिद्ध था। इसका कारण यह था कि इनके यहाँ तम्‍बाकू का व्‍यापार होता था Read More

 

          इस पोस्ट के माध्यम से हमने जाना आकाशदीप ( Akashdeep ) कहानी के सारांस के बारे में जो कि जयशंकर प्रसाद (Jaishankar Prasad) द्वारा  लिखित हैं। उम्मीद करती हूँ किआपको हमारा यह पोस्ट पसंद आया होगा। पोस्ट अच्छा लगा तो इसे अपने दोस्तों के साथ शेयर करना न भूले। किसी भी तरह का प्रश्न हो तो आप हमसे कमेन्ट बॉक्स में पूछ सकतें हैं। साथ ही हमारे Blogs को Follow करे जिससे आपको हमारे हर नए पोस्ट कि Notification मिलते रहे।

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